छिपी हिंसा

पिछले कुछ दिनों में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और देश के अन्य महानगरों में शहरी हिंसा के बदलते प्रोफाइल की दिलचस्प छवियां दिखाई पड़ीं। ऐसा नहीं था कि यह हिंसा कोई आकस्मिक परिघटना हो।

फर्क सिर्फ इतना आया है कि तकनीक ने अब इसे ढका-छिपा नहीं रहने दिया है। पिछले एक महीने में ही देखें, तो देश की राजधानी से सटे अकेले नोएडा में ही आधे दर्जन से अधिक वीडियो वायरल हुए हैं, जिनमें उच्च मध्य वर्ग की सोसायटियों में महिलाएं गार्ड या पड़ोसियों या टैक्सी चालकों की पिटाई करती दिख रही हैं।

कुछ में तो वे ऐसी गालियों का वर्जना मुक्त इस्तेमाल कर रही हैं, जिन पर प्रचलित मान्यता के अनुसार, सिर्फ मर्दों का ही अधिकार था। अब तक कहां छिपी थी यह हिंसा?
यह भारतीय मानस में छिपी वह हिंसा है, जिसे प्रख्यात समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया क्रूर कायरता कहते थे। इस हिंसा में अपने से ताकतवर के आगे तो समर्पण और कमजोर पर ज्यादती हमारे व्यवहार का अंग होता है। अपने मोहल्ले के गुंडे के आगे दुम हिलाने वाले लोग बस अड्डे पर पकड़े गए जेबकतरे पर अपनी बहादुरी का प्रदर्शन करते हैं। हालिया हिंसा के मामलों में भी पिटने वाले अक्सर गार्ड या घरों में काम करने वाले थे।

शहरी हिंसा के ये बढ़ते हुए मामले कई अर्थों में हमारी पारंपरिक समझ की पकड़ के बाहर हैं और एक विस्तृत समाजशास्त्रीय अध्ययन की मांग करते हैं। बेतरतीब शहरीकरण के चलते बड़ी संख्या में अपनी जड़ों से उखड़ेहुए लोग आकर महानगरीय सोसायटियों में बस रहे हैं।

अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आने वाले परिवारों के बीच अपरिचय के विंध्याचल पसरे होते हैं और अक्सर एक-दूसरे के बारे में उनके पास बुनियादी जानकारी भी नहीं होती है। अलगाववाद की यह स्थिति कार्ल मार्क्स की उस शास्त्रीय परिकल्पना से भिन्न है, जो उन्होंने कामगारों की नियति को ध्यान में रखते हुए गढ़ी थी, पर है उतनी ही कारुणिक और अंदर से तोड़ देनी वाली। जिन गांवों, कस्बों या छोटे शहरों को छोड़कर ये नए रहवासी इन गगनचुंबी इमारतों में रहने आए हैं, वहां निजता के मूल्य का कोई अर्थ नहीं  है।

पड़ोसी यहां तक जानते हैं कि बगल वाले घर की रसोई में क्या पक रहा है। एक खास तरह की सामाजिकता है, जिसमें हर कोई एक-दूसरे के सुख-दुख में शरीक होता है। इसके बरक्स अपार्टमेंट में पड़ोसी को उसके दरवाजे पर टंगे नेम प्लेट की इबारत से ही पहचानते हैं। कभी-कभार लिफ्ट में मिल जाने पर दुआ-सलाम तक सीमित ये संबंध किसी अंतरंगता का निर्माण नहीं कर सकते। ऐसे में, स्वाभाविक ही है कि यह अलगाववाद प्रेम, पारस्परिकता और सद्भाव के लिए जीवन में स्थान संकुचित करता जाता है।


इन बहुमंजिली इमारतों की जिंदगी में यह तो स्वाभाविक ही है कि उनके निवासी ज्यादा सहजता से अपना धैर्य खो देते हैं। समाज में बढ़ रही गैर-बराबरी इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। महानगरों में रोजगार के नए अवसर उत्पन्न हुए हैं। किसी भी बड़े शहर में सुरक्षा गार्ड, डिलिवरी बॉय या मेड जैसी नौकरियों में लाखों लोग कार्यरत हैं। गांवों में रोजगार के अभाव के चलते वहां से शहरों में आए लोग कम वेतन पर देर तक काम के लिए राजी हैं।

अस्वास्थ्यकर रिहाइशों में रहते और पर्याप्त भोजन या मनोरंजन की बुनियादी सुविधाओं से वंचित इनका सामना उस मध्यवर्ग से पड़ता है, जो खुद भी अलग-थलग पड़ा बहुत से कोमल तत्वों से वंचित हो चुका है। स्वाभाविक है कि इस संपर्क से तनाव के ऐसे बिंदु उत्पन्न होते हैं, जिनकी सहज परिणति वाचिक या शारीरिक हिंसा में होती है। यहां एक निर्णायक फर्क तकनीक ने पैदा कर दिया है।

फोटोग्राफी या वीडियोग्राफी की सुविधा सहज और सस्ती उपलब्ध है, जिसे हम सर्वहारा के प्रतिरोध के रूप में देख सकते हैं। पुलिस-ज्यादती की कई घटनाएं सिर्फ वीडियो वायरल होने से सार्वजनिक हो पाईं और दोषियों को दंडित किया जा सका। इसी तरह, सिर्फ एक हफ्ते में नोयडा की दो घटनाओं में सिक्योरिटी गार्ड ने वीडियो बनाकर दो मगरूर अपार्टमेंट निवासी के खिलाफ पुलिस कार्रवाई करा दी। महिलाओं ने एक मनबढ़ नेता को भी उसकी हरकतों की वीडियो बनाकर जेल भिजवा दिया।

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