जंग से कमाता अमेरिका

अमेरिकी कांग्रेस (संसद) का एक थिंक टैंक है- कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस (सीआरएस)। इसके पास 600 कर्मचारी हैं, जिनमें वकील, अर्थशास्त्री, पुस्तकालयों के अध्यक्ष व वैज्ञानिक शामिल हैं। सरकारी अधिकारियों को निष्पक्ष शोध व सूचना मुहैया कराना इसका काम है। सीआरएस की वेबसाइट पर इसकी ‘अ-गोपनीय’ रिपोर्ट आसानी से देखी जा सकती है। इस साल मार्च में इसने ऐसी ही एक रिपोर्ट जारी की, जिसका शीर्षक था- ‘इन्सटेंसेज ऑफ यूज ऑफ यूनाइटेड स्टेट आर्म्ड फोर्सेस अब्रोड, 1798-2022’, यानी विदेशी सरजमीं पर 1798 से 2022 के बीच अमेरिकी सैन्य बलों के उपयोग के उदाहरण। इसमें अमेरिकी फौज द्वारा किए गए उन 469 सैन्य अभियानों का जिक्र है, जिसे कांग्रेस ने स्वीकार किया है। अमेरिका ने साल 1991 के बाद से, जब सोवियत संघ का पतन और शीत युद्ध का आधिकारिक अंत हुआ था, कम से कम 251 सैन्य अभियान किए हैं। हालांकि, यह भी पूरा सच नहीं है। इस सूची में उन ‘खुफिया कार्रवाइयों या घटनाओं का जिक्र नहीं है, जिनमें अमेरिकी फौज दुश्मन सेना द्वारा कब्जाए गए क्षेत्र को फिर से हथियाने या पारस्परिक सुरक्षा संगठनों, समझौतों, नियमित सैन्य सहायता या प्रशिक्षण के कामों में हिस्सा लेने के लिए विदेश गई’। इसमें उन अभियानों की भी चर्चा नहीं है, जिनमें ‘अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों का इस्तेमाल देश के पश्चिमी हिस्से में शांति-स्थापना, विवाद निपटारे और बंदोबस्त के कामों में किया गया’। जाहिर है, इससे यही लगता है कि पिछले 200 वर्षों से अमेरिका कमोबेश हर दिन कहीं न कहीं युद्ध लड़ता रहा है। मगर अमेरिकी सरकार ने दोनों विश्व युद्ध सहित औपचारिक रूप से महज 11 बार जंग की घोषणा की है।
यह भी दिलचस्प है कि साम्यवाद से मुक्त ‘एक नई विश्व व्यवस्था’ बनाने का दावा करने के बाद अमेरिका पिछले तीन दशकों से अपने अधिकाधिक सैनिक युद्ध में भेज रहा है। टफ्ट्स यूनिवर्सिटी का सामरिक अध्ययन केंद्र अमेरिकी सैन्य अभियानों के बारे में कहता है, ‘अमेरिका ने 1776 के बाद से 500 से अधिक अंतरराष्ट्रीय सैन्य अभियान किए, जिनमें से करीब 60 प्रतिशत 1950 से 2017 के बीच किए गए हैं। इनमें से भी एक तिहाई से अधिक कार्रवाइयां 1999 के बाद की गई हैं।’ इसमें आगे लिखा गया है, ‘हम यह मान रहे थे कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद चुनौतियों में कमी को देखते हुए अमेरिका ने विदेशों में अपने सैन्य अभियान कम किए होंगे। मगर असलियत में उसने अपनी सैन्य कार्रवाइयां बढ़ाई हैं।’
पिछडे़ पखवाड़े अपने टीवी शो में बिल मेहर, जो जागरूकता और ‘सामाजिक न्याय’ के शोर के बीच एक प्रामाणिक उदार आवाज हैं, टॉम क्रूज की फिल्म टॉप गन : मैवरिक के बारे में बात कर रहे थे। यह फिल्म इस साल हॉलीवुड की सबसे सफल फिल्मों में से एक है। मेहर ने इसे ‘रक्षा ठेकेदारों, सैन्यवादी कट्टर राष्ट्रवाद और बम बरसाने वाले विदेशियों के लिए दो घंटे का प्रचार अभियान’ कहा है। उन्होंने इसके लिए फिल्म समीक्षकों की भी चुटकी ली। उन्होंने कहा, ‘रिलीज होने वाली हर दूसरी फिल्म, जो उदारवादियों के लिए उत्साही उदार इरादों के साथ उदारवादियों द्वारा बनाई जाती है, उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती। अगर यह फिल्म गरीबी के बारे में है, तो निर्देशक इसमें इतनी गरीबी नहीं ला सके कि वह समझी जा सके। अगर यह फिल्म समलैंगिकता पर है, तो इसमें वह भी अधिक नहीं है। रंगभेद, नस्लवाद, श्वेत श्रेष्ठतावाद की चर्चा भी प्रासंगिक है। फिर भी, 96 फीसदी फिल्म समीक्षकों ने टॉप गन  को ठीक उसी तरह पसंद किया, जैसे एक कैथोलिक पादरी ‘स्लिप-अवे कैंप’ को पसंद करता है, जिसमें बच्चे गरमी में रात भर कैंप में रुकते हैं।’ 
वह कहते हैं, ‘यदि आप एक फिल्म समीक्षक हैं और सिनेमा में अनुदारतावाद को जड़ से उखाड़ फेंकने को अपने जीवन का मकसद मानते हैं, तो क्या आपने यह ध्यान नहीं दिया कि टॉप गन  काफी कुछ युद्धोत्तेजक माहौल बनाने को लेकर है? अगर अमेरिकी फौज को एक देश मान लें, तो इसमें जितने ईंधन का इस्तेमाल किया गया है, वह इसे दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों को 47वां सबसे बड़ा उत्सर्जक बना देगा।’
सवाल यह भी है कि इसमें दुश्मन कौन है, जिससे टॉम क्रूज लड़ रहे हैं? ‘हम न उसका नाम लेते हैं, न उसके चेहरे को देखते हैं और न उसको बातें करते सुनते हैं। तब आखिर वह है कौन? शायद यह निर्देशक के लिए मायने नहीं रखता’। मेहर की मानें, तो ‘हम नहीं जानते कि किस पर बमबारी कर रहे हैं और हमें इसकी परवाह भी नहीं है। हे ईश्वर, अमेरिका की रक्षा करना।’
अभी जिस तरह से यूक्रेन की अंतहीन जंग जारी है, खुशी मात्र अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक क्षेत्र को है। इस युद्ध में एक लाख से अधिक इंसानों की जान गई है, लाखों बेघर हुए हैं, पश्चिम में महंगाई आसमान छू रही है, सर्दियों में रूसी गैस की जरूरत को देखते हुए तमाम तरह की आशंकाएं पसरी हुई हैं, दुनिया भर के लोग भोजन और अन्य जरूरी सामानों की आपूर्ति को लेकर गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। मगर हथियार बनाने वाले लोग अपनी तिजोरी देखकर अट्टहास कर रहे हैं।
साफ है। अमेरिका एक साम्राज्यवादी ताकत है और मानव इतिहास साम्राज्यवादी कहानियों से भरा पड़ा है। मगर क्या अमेरिका इस मायने में अलग है कि अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए वह पूरी दुनिया में लड़ता रहेगा? ब्रिटेन भी अपनी सत्ता बचाने के लिए हर वक्त जंग में शामिल नहीं रहा। इसलिए लगता यही है कि अमेरिका अपनी ताकत के मद में धुत होकर आगे बढ़ रहा है, जिसके लिए वह सुदूर देशों में भी लगातार दखल दे रहा है। वह यूक्रेन में सैनिकों को भेजकर अपने देशवासियों की जान जोखिम में नहीं डालेगा, लेकिन वह किसी न किसी तरह से इस युद्ध को जारी रखेगा, क्योंकि इससे वह कमाई करता है। यहां पर यह समझने की भूल न करें कि ये पैसे आम अमेरिकियों के हाथों में आएंगे। कतई नहीं। इससे सिर्फ वे कंपनियां और लोग ही मालामाल होंगे, जो पिछले साल अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने के बाद से एक नए युद्ध की कामना कर रहे थे। दुर्भाग्य से, इसकी कीमत शेष दुनिया चुका रही है।

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