मिट्टी का ऋण
यह भारत की स्वतंत्रता का 75वां वर्ष तिरंगे का वर्ष है। जैसे ही हमारा झंडा फहराता है, हमारा दिमाग जाग उठता है; जैसे ही यह फड़फड़ाता है, हमारा दिल बैठ जाता है या धड़कने लगता है। ..और तब हमारी आंखों के सामने हमारे ऐसे नेताओं की छवियां उमड़ती हैं, जिन्हें दुनिया आज जानती तक नहीं है।
हम भारत के लोगों के बिना हमारे नेता कतई नेतृत्व नहीं कर सकते थे, बिना हमारे आंदोलन कामयाब नहीं हो सकते थे, स्वतंत्रता के संघर्ष में हम विजयी नहीं हो सकते थे। जब दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह की सफलता के बाद गांधीजी और उनकी पत्नी कस्तूरबा का 4 अगस्त, 1914 को लंदन में अभिनंदन किया जा रहा था, तब उन्होंने कहा था, ‘हमें… दक्षिण अफ्रीका में ख्याति हासिल हुई, लेकिन हम अगर किसी अनुमोदन के योग्य हैं, तो वे लोग कितने योग्य थे, जो बिना प्रशंसा या प्रचार के संघर्ष करते चले गए?
हरबुत सिंह 75 वर्ष के थे, जब वह संघर्ष में शामिल हुए थे और जेल गए थे और वहीं पर उनका निधन हो गया था। किशोर नारायणस्वामी को मद्रास निर्वासित कर दिया गया और वापस लौटते समय उन्होंने अनशन किया और दुनिया से चले गए… और वल्लियम्मा, 18 वर्ष की युवती, जेल गईं और वहां से उन्हें तभी मुक्ति मिली, जब वह बहुत बीमार पड़ गईं और उसके कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गई।
तब बीस हजार मजदूर अपने औजार और काम छोड़कर पूरी आस्था के साथ निकल पड़े थे। हिंसा पूरी तरह से टाल दी गई थी। इन नायकों और नायिकाओं के सामने हम तो गरीब नश्वर हैं। और उन्होंने आगे कहा था, ‘इन पुरुषों और महिलाओं पर, जो मिट्टी के नायक हैं, भारतीय राष्ट्र का निर्माण किया जाएगा।’ वहां गांधीजी को सुनने वालों में लाला लाजपत राय, सच्चिदानंद सिन्हा और भूपेंद्रनाथ बसु, सरोजिनी नायडू और मोहम्मद अली जिन्ना शामिल थे।
उन सभी के हृदय में यह संदेश उतर गया कि संघर्ष के असली नायक-नायिका कौन हैं? इसीलिए यह विशेष जयंती वर्ष, सामूहिक स्मरण और उत्सव का वर्ष, केवल नामी नेताओं से जुड़ा नहीं है, बल्कि उन लोगों से भी जुड़ा है, जिन्होंने नेताओं को खड़ा किया, आंदोलनों को संचालित किया और संघर्ष को ताकत, गति और जीत से नवाजा। यह उन नायकों और नायिकाओं से संबंधित वर्ष है, जिनके हम ऋणी हैं। स्वतंत्रता दिलाने के लिए, स्वतंत्रता की वजह से प्राप्त उपलब्धियों के लिए हम उनके ऋणी हैं।
जब हम लड़खड़ाते हैं, नाकाम होते हैं और गलत हो जाते हैं, जब हमारा विश्वास डगमगाता है और हमारे राजनीतिक विवेक के साथ हमारी प्रतिज्ञाएं टकराती हैं, तब हम केवल नामी नेताओं को ही नीचा नहीं दिखाते हैं; तब हम केवल अपने प्रिय महान स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी और बहादुर जवाहरलाल को नीचा नहीं दिखाते हैं, जिन्हें महाकवि टैगोर ने ‘तरुण तपस्वी’ कहा था; हम तब केवल अदम्य साहसी सरदार पटेल, विद्वान-राष्ट्रवादी मौलाना आजाद, अमर शहीद भगत सिंह, शानदार कानून निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर को ही नहीं, बल्कि हम भारत की इस मिट्टी के नायकों को भी धोखा देते हैं।
याद रहे, गुजरात के समुद्र तट पर 1930 के नमक सत्याग्रह ने ब्रिटिश राज की चूलें हिला दी थी। नमक का यह एक आकर्षक विचार किसी आंदोलन से भी बढ़कर था। वह एक रूपक नमक की मान्यता थी। हमारी धरती के नमक, मतलब नायक, भारत का जनमानस बनाने वाले लोग।