नयी शुरुआत
टोक्यो ओलंपिक में गांव व छोटे शहरों से आये खिलाड़ियों ने अविश्वसनीय प्रदर्शन करके देश का गौरव बढ़ाया है। बेहद मुश्किल हालातों और अभावों की तपिश से निखरी इन प्रतिभाओं को चमकाने में हमारे खेलतंत्र का कम व इन खिलाड़ियों के निजी प्रयास महत्वपूर्ण रहे। एक जुनून था अपने खेल में कुछ कर गुजरने का। दूरदराज के गांवों से निकले इन खिलाड़ियों ने खून-पसीना एक करके वैश्विक पहचान हासिल की।
इनमें सोनीपत के नाहरी गांव के पहलवान रवि दहिया, मुक्तसर के कबरवाला गांव की डिस्कस थ्रोअर कमलप्रीत, असम के गोलाघाट जनपद के बरो मुखिया गांव की मुक्केबाज लवलीना बोरगोहाईं शामिल हैं। भारोत्तोलन में सबसे पहले रजत पदक जीतने वाली मणिपुर की मीराबाई चानू जब निकट के शहर में अभ्यास के लिये जाती थी तो धनाभाव में ट्रकों से लिफ्ट लेती थी। उसने पदक लेकर लौटने पर कई ट्रक चालकों को सम्मानित करके कृतज्ञता जाहिर की।
इन खिलाड़ियों का संघर्ष कितना बड़ा है? वे बेहद मुश्किल हालातों से जूझकर देश के लिये तमगे लाते हैं। कुशल प्रशिक्षण व आधुनिक सुविधाओं से लैस पश्चिमी देशों के खिलाड़ियों से हारने के बाद मैदान में आंसू बहाते हमारे खिलाड़ी सपनों के बिखरने पर टूट जाते हैं। ये खिलाड़ी गरीबी, पितृसत्तात्मक समाज व अनेक पूर्वाग्रहों को परास्त करके खेलों में जी-जान लगा देते हैं। आखिर हम ओलंपिक में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कब कर पायेंगे?
समय आ गया है कि देश में खेलों के अनुकूल वातावरण तैयार किया जाये। आने वाले दशकों के लक्ष्य हासिल करने हेतु व्यावहारिक रोडमैप तैयार किया जाये, जिससे हमारे खिलाड़ी देश की झोली सोने-चांदी के पदकों से भर सकें। निस्संदेह बेहतर प्रशिक्षण और अभ्यास के लिये आधुनिक संसाधन जुटाने से खिलाड़ियों के प्रदर्शन में अप्रत्याशित सुधार होता है। खिलाड़ी जहां मौलिक प्रतिभा और अभ्यास से अर्जित प्रतिभा से लक्ष्य हासिल करते हैं, वहीं सक्षम कोच व साधन भी जरूरी हैं।
निस्संदेह वक्त के साथ विश्वस्तरीय सुविधा, प्रशिक्षण व संसाधनों की खेलों में पदक जीतने में बड़ी भूमिका हो गई है। खेल के बारीक गुर और आधुनिक तकनीक भी खेलों की दशा-दिशा तय करती है। टोक्यो ओलंपिक व पहले की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उन भारतीय खिलाड़ियों के प्रदर्शन में अविश्वसनीय सुधार हुआ है, जिन्होंने विदेशों में या देश में विदेशी कोचों के जरिये प्रशिक्षण लिया।
भारत में जहां हमारी मौलिक प्रतिभाएं रहती हैं, वहां खेल प्रशिक्षण की मूलभूत सुविधाओं का नितांत अभाव है। इन प्रतिभाओं को घर के पास खेल अकादमियां नहीं मिलती, दूर के शहर में सुविधा मिलती है तो उनके पास अकादमियों की फीस भरने के पैसे नहीं होते। गांव-देहात के कम आय वर्ग के बच्चे दिल्ली, बेंगलुरु, पटियाला और चेन्नई जैसी अकादमी वाले शहरों में लंबे समय तक रहकर प्रशिक्षण लेने में सक्षम भी नहीं होते।
कई खिलाड़ियों को सैकड़ों किलोमीटर केवल अभ्यास के लिये रोज आना-जाना पड़ता है। इस दिशा में सुधार के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति भी राजनेताओं में नजर नहीं आई। निस्संदेह रातों-रात ओलंपिक में पदक जीतने वाले खिलाड़ी तैयार नहीं होते। दशकों पहले खेलतंत्र विकसित करना होता है। जरूरी है खिलाड़ियों को घर के नजदीक खेल का कौशल सुधारने वाला बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराया जाये। इसके अभाव में कई खेल प्रतिभाएं बीच में खेलना छोड़ देती हैं। हर जिले में राष्ट्रीय स्तर की खेल सुविधाएं उपलब्ध करायी जायें।
अपने मूल स्थानों पर ये प्रतिभाएं बेहतर प्रदर्शन कर सकती हैं। उन्हें पढ़ाई में कुछ छूट देने के साथ आर्थिक सहायता भी मिले ताकि वे बेफिक्र होकर खेल पर ध्यान लगा सकें। ऐसी खेल संस्कृति के विकास से हम अंतर्राष्ट्रीय खेल आयोजन करने में भी सक्षम हो सकेंगे। इस दिशा में ओडिशा सरकार की पहल अनुकरणीय है, जिसने न केवल देश की राष्ट्रीय टीमों को प्रायोजित किया बल्कि वर्ष 2023 में होने वाले पुरुष हाकी विश्वकप की मेजबानी हासिल कर ली।
स्थानीय प्रतिभाओं को निखारने के लिये सुंदरगढ़ जिले के सभी 17 ब्लॉकों में एस्ट्रोटर्फ मैदान तैयार हो रहे हैं। राउरकेला में अंतर्राष्ट्रीय स्तर का हॉकी स्टेडियम तैयार हो रहा है। निश्चित रूप से यह जमीनी स्तर पर होने वाला निवेश भविष्य की पूंजी है।