संयम
यूं तो असम व मिजोरम के सीमा विवाद का पुराना इतिहास रहा है लेकिन बीते सोमवार को इस बाबत भड़की हिंसा में असम पुलिस के छह जवानों की मौत बेहद दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। जिसे टालने की प्रशासनिक व राजनीतिक पहल समय रहते की जाती तो इस हिंसा को टाला जा सकता था। वैसे तो बीते साल अक्तूबर में दोनों राज्यों की सीमाओं के बीच झड़पें हुई थीं और दोनों ने एक-दूसरे पर अपने क्षेत्र के अतिक्रमण के आरोप लगाये थे। विडंबना यह है कि शिलांग में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा पूर्वोत्तर के मुख्यमंत्रियों से राज्यों के सीमा विवाद व अन्य मुद्दों पर चर्चा के दो दिन बाद यह घटना घटी।
यह भी हकीकत है कि दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने समय रहते स्थिति को सही ढंग से नहीं संभाला और दोनों ट्विटर पर टकराव में उलझे रहे, जिससे जनाक्रोश में वृद्धि ही हुई। ऐसे में नहीं लगता कि दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री लंबे समय से लंबित सीमा विवाद को अपने बूते हल करने में सक्षम होंगे। ऐसे में केंद्र सरकार से सक्रिय भूमिका की अपेक्षा है। दरअसल, दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद की जड़ें औपनिवेशिक शासनकाल तक पहुंचती हैं।
विवाद के मूल में वर्ष 1875 और 1933 में जारी दो ब्रिटिशकालीन अधिसूचनाएं हैं, जिनके आधार पर अलग-अलग तरीके से अंतर्राज्यीय सीमा का निर्धारण किया गया था। दोनों ही राज्य अपनी सुविधा के अनुसार अलग-अलग अधिसूचनाओं को सीमा निर्धारण का आधार बनाते हैं। सोमवार की घटना के बाद दोनों पक्षों को आपस में मिल-बैठकर स्वीकार्य समाधान की ओर बढ़ना चाहिए। निस्संदेह विगत में पूर्वोत्तर सीमाओं के अतिक्रमण और अन्य राज्यों के नागरिकों के बाबत हिंसा व संघर्ष की चपेट में रहा है, जिसके चलते कानून-व्यवस्था का संकट गाहे-बगाहे पैदा होता रहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पूर्वोत्तर दशकों तक उग्रवाद का शिकार रहा है।
सोमवार जैसी घटनाएं उग्रवाद को पैर जमाने का मौका दे सकती हैं। वैसे भी देश के संवेदनशील सीमावर्ती राज्यों में यह स्थिति राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये भी घातक हो सकती है। ऐसी हिंसा को रोकने के लिये केंद्रीय अर्धसैनिकों बलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। भविष्य में ऐसे टकराव को टालने के लिये इनकी तैनाती पर विचार किया जा सकता है। इसके अलावा राजग सरकार के एजेंडे में पूर्वोत्तर का विकास व शांति प्राथमिकताओं में शुमार रहा है।
वह दावा करती रही है कि पूर्वोत्तर की प्रगति के लिये उसने बड़ी पहल की है और केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन्हें प्राथमिकता दी है। यह केंद्र सरकार के लिये भी परीक्षा की घड़ी है कि वह कितनी जल्दी व कुशलता से पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों के सीमा विवादों को हल कर पाती है। यह प्रधानमंत्री की विविधता वाले देश के लिये सुविचारित ‘भारत जोड़ो आंदोलन’ अभियान की भी परीक्षा है।
फिलहाल यथास्थिति बनाये रखते हुए विवाद के सर्वमान्य हल की तलाश केंद्र सरकार की पहल से की जानी चाहिए जो देश के संघीय ढांचे को मजबूत करने के लिये भी अपरिहार्य शर्त है। कभी असम का हिस्सा रहे मिजोरम के राज्य बनने के तीन दशक बाद भी यदि सीमा विवाद के कारण दूर नहीं हो पाये हैं तो यह राजनीतिक व प्रशासनिक विफलता का ही परिचायक है।
वैसे भी छोटे-मोटे विवाद देश के अन्य भागों में भी राज्यों के बीच होते रहते हैं, लेकिन राज्यों की पुलिस के बीच टकराव होने की स्थिति कतई नहीं बनने दी जा सकती। यह हमारी तमाम एजेंसियों की विफलता भी है कि सीमा पर जारी तनाव को वे समय रहते नहीं भांप पायी। इसके अलावा दोनों राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व को भी संयम का परिचय देना चाहिए, अन्यथा इससे दोनों राज्यों के लोगों के बीच कटुता को बढ़ावा मिल सकता है, जिसे देश हित में कदापि नहीं कहा जा सकता।
विवाद के समाधान के लिये देश में कानून व संविधान सम्मत तमाम विकल्प मौजूद हैं, जिनका उपयोग दोनों लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकारों को करना चाहिए। इन विकल्पों का उपयोग तुरंत बिना देरी किये किया जाना चाहिए। साथ ही हिंसा की जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए।