यूक्रेन-रूस लड़ाई 

किसी भी युद्ध के लिए डेढ़ सौ दिन का समय बहुत लंबा होता है। लड़ाई चाहे कितनी भी भयानक क्यों न चल रही हो, इतने दिनों में युद्ध की उबाऊ खबरें अखबारों में अंदर के पन्नों पर चली जाती हैं और न्यूज चैनल उनका जिक्र तक बंद कर देते हैं। रूस और यूक्रेन के बीच चल रही जंग फिलहाल इसी दौर से गुजर रही है।

24 फरवरी को जब रूस ने यूक्रेन पर हमला बोला था, तब बड़ी आसानी से यह मान लिया गया था कि जल्द ही वह रूस की बलशाली सेना के कब्जे में आ जाएगा। टेलीविजन की खबरों में हर पल यही बताया जाता था कि रूसी सेना यूक्रेन की राजधानी कीव से अब कितनी दूर है।

यूक्रेन तो खैर शुरू से ही रक्षात्मक मुद्रा में था, लेकिन इस युद्ध में रूस को जो पापड़ बेलने पड़ रहे हैं, उसने आसान सी समझी जाने वाली विजय यात्रा को टेढ़ी खीर बना दिया है। लेकिन यह जंग उससे भी टेढ़ी खीर युद्धशास्त्र के उन माहिरों और राजनय के विशेषज्ञों के लिए बन गई है, जो इस लड़ाई को परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं।


जंग जब शुरू हुई थी, तब तकरीबन सभी ने इसे शीत युद्ध की वापसी कहना शुरू कर दिया था। किसी युद्ध विश्लेषक के लिए यह नया शीत युद्ध था, तो किसी के लिए यह दूसरा शीत युद्ध। यह कहना बहुत आसान भी था, क्योंकि शीत युद्ध की तरह इस बार भी तनाव मुख्यत: अमेरिका और रूस के बीच था।

इस बार भी दोनों की सेनाएं आमने-सामने नहीं लड़ रही थीं। शीत युद्ध की तरह ही इस बार भी दुनिया भर में हथियारों की एक नई होड़ शुरू हो गई थी। मगर नए तनाव को पुराने चश्मे से देखने का यह सिलसिला लंबा नहीं चल सका।

जंग शुरू होने के कुछ समय बाद ही इस नए शीत युद्ध की अवधारणाओं से असहमतियां उपजनी शुरू हो गईं। जिसे हम शीत युद्ध कहते थे, वह दरअसल दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं की लड़ाई थी- साम्यवाद और उदारवाद या पूंजीवाद। लेकिन अब जो तनाव है, उससे विचारधाराओं की लड़ाई नदारद है।

इस लड़ाई में आपको रूस समर्थक या यूक्रेन समर्थक देश तो बहुत आसानी से दिख जाएंगे, लेकिन वह दुनिया अब कहीं नहीं है, जिसमें इसका अर्थ होता था, साम्यवाद समर्थक और पूंजीवाद समर्थक।


एक विचार यह भी है कि दरअसल जिसे हम शीत युद्ध कहते हैं, वह युद्ध था ही नहीं। वह एक तरह का संतुलन था, जिसे अंदर खदबदाती तरह-तरह की आग के बावजूद दुनिया ने साध रखा था, जबकि इस समय मामला किसी संतुलन के सधने का नहीं, बल्कि बिगड़ जाने का है।

कुछ इतिहासकार तो अब यहां तक कहने लगे हैं कि दुनिया में इस समय वैसी ही परिस्थितियां बनती जा रही हैं, जैसी प्रथम विश्व युद्ध के पहले थीं। इसलिए रूस और यूक्रेन की इस लड़ाई को किसी बड़े युद्ध का पूर्वकाल भी कहा जा रहा है। हम कामना करेंगे कि ऐसा न हो!

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