आदिवासी बनाम चिड़ियाघर

मैं तो आदिवासियों की ओर से कुछ शब्द कहने के लिए यहां आया हूं, क्योंकि हम पर भी अल्पसंख्यक उप-समिति की सिफारिशों का प्रभाव पड़ा है। मैं एंग्लो इंडियन और पारसियों के समान छोटे अल्पसंख्यकों को उनकी सफलता पर बधाई देता हूं।

मैंने उन्हें छोटा इसलिए कहा है, क्योंकि उनकी संख्या हमारी संख्या से बहुत ही कम है और इस दृष्टि से वे अत्यंत छोटे हैं। जहां तक एंग्लो इंडियन का संबंध है, उन्हें तो निश्चय ही अपनी योग्यता से अधिक भाग मिला है। मुझे उनसे कोई ईष्र्या नहीं।

प्रभु करें, उनका भविष्य और भी भाग्यशाली हो। हम संख्या की दृष्टि से अल्पसंख्यक हैं, इस बात को सामने रखकर यहां व्यवहार नहीं कर रहे। हिंदुओं या मुसलमानों से हम कम हैं अथवा पारसियों से अधिक हमारी इस स्थिति का इस बात से कोई संबंध नहीं, हमारा पक्ष तो इस बात पर निर्भर है कि हमारे और जाति के अन्य लोगों के सामाजिक, आर्थिक और शिक्षा स्तरों में जमीन- आसमान का फर्क है।

और यह विधान द्वारा लगाई गई किसी विशेष शर्त द्वारा ही संभव हो सकता है कि हम लोगों को साधारण जनता के तल तक लाया जा सके। मेरे विचार में आदिवासी अल्पसंख्यक नहीं।

मेरा तो हमेशा से ही यह ख्याल रहा है कि वे लोग जो देश के आदिस्वामी थे, उनकी संख्या चाहे कितनी ही थोड़ी क्यों न हो, कभी भी अल्पसंख्यक नहीं समझे जा सकते। उन्हें ये अधिकार परंपरा से प्राप्त हुए हैं और संसार में कोई भी उनसे ये छीन नहीं सकता।

हम इस समय परंपरा से प्राप्त इन अधिकारों की मांग नहीं कर रहे हैं। हम तो दूसरे लोगों से जो व्यवहार होता है, उसकी ही मांग करते हैं। अतीत में हमें इस तरह अलग-अलग रखा गया था, मानो कि हम किसी चिड़ियाघर में रहते हों।

इसके लिए मुझे बड़े राजनीतिक दलों, अंग्रेजी सरकार और प्रत्येक शिक्षित भारतीय को धन्यवाद देना है। अतीत में हमारे प्रति सब लोगों का ऐसा व्यवहार रहा है। हमारा कहना तो यह है कि आपको हमारे साथ मिलना ही होगा और हम भी आपके साथ मिलने के लिए तैयार हैं।

इसी कारण से तो हमने धारासभाओं में स्थानों के आरक्षण के लिए जोर लगाया है, ताकि हम आपको अपने समीप आने के लिए बाध्य कर सकें और स्वयं अवश्य ही आपके समीप आएं। हमने पृथक निर्वाचन की कभी मांग नहीं की और वस्तुत: हमें यह कभी प्राप्त भी नहीं हुआ।

केवल आदिवासियों के एक छोटे से अंग को, जो कि अन्य मतों को और विशेषकर पाश्चात्य ईसाई धर्म को अपना चुका था, पृथक निर्वाचन प्राप्त हुआ था। परंतु इनकी बहुत बड़ी संख्या, जहां कहीं पर भी उन्हें मत देने का अधिकार प्राप्त हुआ था, साधारण निर्वाचन के ही मातहत थी।

हां, उनके लिए स्थान आरक्षित कर दिए गए थे। अत: जहां तक आदिवासियों का संबंध है, कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ। परंतु आंकड़ों की दृष्टि से एक बहुत बड़ा परिवर्तन हो चुका है। सन 1935 के ऐक्ट के अनुसार, भारत की सारी प्रांतीय धारासभाओं के 1,585 सदस्यों में से आदिवासियों के केवल 24 ही थे और केंद्र में तो एक भी उनका सदस्य न था।

अब वयस्क मताधिकार विधि के अनुसार, जो प्रत्येक लाख आबादी के पीछे एक सदस्य भेजने का अधिकार देती है, हमारी स्थिति में बड़ा भारी फर्क पड़ जाएगा। अब यह गिनती पहले से दस गुना होगी।

जब मैं भारत का जिक्र करता हूं, तो क्या मैं देशी रियासतों से भी यह निवेदन कर सकता हूं? देशी रियासतों में आदिवासियों को कहीं भी थोड़ा-सा भी प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं। लेकिन मैं आशा करताहूं, भारतीयता के भाव वहां भी उचित रूप से प्रवेश   कर जाएंगे।… 


परिगणित जातियों के नेताओं ने नौकरियों में उनके लिए रखी गई सुरक्षा (आरक्षण) के संबंध में कृतज्ञता प्रकट करते हुए बहुत कुछ कह डाला है। थोड़े ही दिन हुए, जब भारत सरकार ने घोषणा की थी कि इस विषय में एक नीति पर अमल किया जाएगा, जिससे परिगणित जातियों को केंद्र सरकार में स्थान दिया जा सके। मुझे बहुत खेद है कि …आदिवासियों को इस विषय में सर्वथा ही भुला दिया गया है। मैं आशा करता हूं कि मेरे ये शब्द भारत सरकार तक पहुंच जाएंगे और वह इस विशेष विषय की और कुछ ध्यान देगी। हम किन्हीं असमान शर्तों पर सुरक्षा की मांग नहीं करते हैं। हमारी तो केवल इतनी ही इच्छा है कि जब तक नौकरी के लिए वांछित मानकों को हम पूरा करते हैं, तो उनसे हमें सर्वथा वंचित न रखा जाए। 

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