ब्रह्मांड का मूल स्रोत
श्रीमद्भगवद्गीता में ‘प्रकृति’ को अनूठे रूप में परिभाषित किया गया है। प्रकृति यानी कृति से पहले। सृजन से पहले ही जिसकी शाश्वत उपस्थिति हो, वही प्रकृति है।
गौरतलब है कि अंग्रेजी भाषा में ‘प्रकृति’ का अनुवाद ‘नेचर’ और ‘क्रिएशन’ के रूप में किया गया है, जबकि भारतीय मनीषा के मुताबिक प्रकृति का अर्थ है ‘प्री क्रिएशन’ यानी सृजन होने से पहले।
गायत्री महाविद्या के महामनीषी युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित योगेश्वर कृष्ण की ‘प्रकृति’ को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं, ‘‘प्रकृति को न ‘नेचर’ से परिभाषित करना उचित है न ‘क्रिएशन’ से। ‘प्रकृति’ वस्तुत: गूढ़ शब्द है।
इसका अर्थ तो योगीराज श्रीकृष्ण की जीवनदृष्टि से ही समझा जा सकता है। आज जो कुछ भी हमें दिखाई पड़ रहा है और जो नहीं भी दिखाई पड़ रहा, वह सब कुछ ‘प्रकृति’ है।
प्रकृति इस समूचे विश्व ब्रह्माण्ड का वह मूल स्रोत है, जिसमें से सब निकलता है और जिसमें सब विलुप्त भी हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सभी रूप व आकार के उद्गम व विसर्जन का नाम है प्रकृति।
’’ इस तथ्य को और स्पष्टता से व्याख्यायित करते हुए वे कहते हैं कि घटनाएं वाह्य प्रकृति में घटित होती हैं और मनुष्य सुख या दुख के रूप में उनकी अनुभूति अपनी आंतरिक प्रकृति में करता है।
उदाहरण के तौर पर मान लें कि एक फूल खिला। फूल खिलने की यह घटना प्रकृति में घटित हुई। अब यदि उस फूल को देखकर प्रतिक्रिया देने वाला कोई व्यक्ति वहां मौजूद न हो तो उस फूल की सुंदरता या कुरूपता की अनुभूति कौन करेगा! बस फूल के खिलने की क्रिया ही घटित होगी।
अब मान लीजिए कि यदि फूल खिलने के साथ कोई व्यक्ति भी वहां उपस्थित हो तो परिदृश्य पूरी तरह बदल जाएगा। यद्यपि फूल प्रकृति में खिला, लेकिन उसे देखने वाले के मन में, उसकी भावनाओं व कल्पनाओं में स्वत: एक अनुभूति खिलने लगी। यानी प्रकृति के घटनाक्रम के ठीक समानांतर यह घटना भी घटित हुई।
व्यक्ति इस फूल को प्रकृति के घटनाक्रम को स्वयं में अनुभव करता है और प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहता है- अति सुंदर। यानी सुंदरता का यह फूल व्यक्ति के अंतस में भी खिल उठा। यदि वह कहता है कि यह सुंदर है तो वह सुख पाता है, पर यदि कहता है कि सुंदर नहीं है तो दुख।