राहत नहीं

सरकार की कमाई में जबर्दस्त उछाल आया है और अब वित्त मंत्रालय को लगता है कि 2025 तक भारत को ‘फाइव ट्रिलियन डॉलर’ यानी पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का काम पटरी है।

पर क्या इसके साथ यह उम्मीद भी की जा सकती है कि कमाई बढ़ने के बाद सरकार महंगाई से परेशान मध्यवर्ग को राहत देने के लिए कुछ करेगी? आयकर, कॉरपोरेट टैक्स, सीमा शुल्क और जीएसटी सभी की वसूली में खासी बढ़ोतरी के बाद यह सवाल उठना तो स्वाभाविक है।

लेकिन वित्त मंत्रालय के अफसरों की भाव-भंगिमा और उनके बयानों में छिपे संकेतों से इसका जो जवाब मिलता है, वह खास उम्मीद बंधाने वाला नहीं लगता। बीते हफ्ते जारी हुए आंकड़ों में सरकार ने ही बताया है कि टैक्स से जबर्दस्त कमाई हो रही है।

सरकार को उम्मीद थी कि पिछले वित्त वर्ष 2021-22 में उसे टैक्स के रास्ते 22.17 लाख करोड़ रुपये की कमाई होगी। लेकिन अब खबर आई है, यह कमाई 27 लाख करोड़ रुपये से ऊपर निकल गई है।

इस आमदनी में कॉरपोरेट टैक्स, यानी कंपनियों की कमाई पर लगने वाले इनकम टैक्स की हिस्सेदारी 8.6 लाख करोड़ रुपये की है। पिछले साल से 56 फीसदी ज्यादा।

दूसरी तरफ, व्यक्तिगत आयकर की हिस्सेदारी में भी 43 प्रतिशत का उछाल आया है और यह 7.48 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। इस तरह प्रत्यक्ष कर की कमाई का जो संशोधित अनुमान 12.5 लाख करोड़ रुपये रखा गया था, असली कमाई उससे कहीं ऊपर 14.1 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गई है। 


अप्रत्यक्ष करों की वसूली में बढ़ोतरी कुछ कम है, लेकिन यहां भी 20 फीसदी वृद्धि हुई है। जीएसटी के खाते में औसतन हर महीने 1.23 लाख करोड़ रुपये आए हैं, जबकि इसके पहले के दो वर्षों में यह रकम 1.01 लाख करोड़ रुपये और 94,734 करोड़ रुपये ही थी। आयात शुल्क में 48 फीसदी का उछाल आया है, जबकि एक्साइज की वसूली में मामूली गिरावट है। 


कर वसूली में इस उछाल के साथ ही भारत का टैक्स-जीडीपी अनुपात भी बढ़ गया है। अब जीडीपी का 11.7 प्रतिशत हिस्सा टैक्स से आ रहा है। इसमें प्रत्यक्ष कर की हिस्सेदारी 6.1 प्रतिशत है और अप्रत्यक्ष कर या जीएसटी, कस्टम और एक्साइज की हिस्सेदारी 5.6 प्रतिशत।

इसका दूसरा अर्थ यह हुआ कि अब अर्थव्यवस्था में कमाई और व्यापार के अनुपात में टैक्स भरने की प्रवृत्ति में सुधार हुआ है। सरकार इसके लिए टैक्स व्यवस्था में सुधार, पहले से भरे हुए टैक्स रिटर्न फॉर्म और एआईएस जैसी व्यवस्थाओं की प्रशंसा कर रही है, जिनके कारण कमाई छिपाना या कर चुराना काफी मुश्किल हो गया है।

वित्त मंत्रालय का यह भी कहना है कि इनकम टैक्स रिटर्न्स के तेजी से निपटारे और जल्दी रिफंड जारी होने से भी करदाताओं का भरोसा बढ़ा है। मंत्रालय ने बताया कि 2.24 लाख करोड़ रुपये करदाताओं को लौटाए गए हैं।
इस हाथ ले और उस हाथ दे वाले इस उदाहरण के बाद यह सवाल भी उठता है कि इनकम टैक्स का रिफंड तो देना ही था, लेकिन पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज के नाम पर जो वसूली चल रही है और उसकी वजह से जनता को जिस महंगाई की मार झेलनी पड़ रही है, उसको राहत देने के लिए सरकार क्या कर रही है? यह सवाल उठते ही सरकार और सरकार के पैरोकार बगलें झांकने लगते हैं। केंद्रीय राजस्व सचिव तरुण बजाज ने जिस वक्त टैक्स वसूली में उछाल के आंकड़े दिखाए और वसूली बढ़ने को अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने का सुबूत बताया, वहीं कुछ ही देर के बाद उन्होंने यह भी बता डाला कि इतनी जबर्दस्त खुशखबरी के बावजूद अभी खुशी मनाने का वक्त नहीं आया है। उनका कहना है कि जून के बाद कुछ बेहतर अंदाज लगाया जा सकता है, क्योंकि तब एडवांस टैक्स की एक किस्त आ चुकी होगी। साथ ही सरकार की यह चिंता भी है कि आयकर और कॉरपोरेट टैक्स जैसे डायरेक्ट टैक्स की वसूली तो सुधर रही है, लेकिन अप्रत्यक्ष करों की वसूली ऐसे ही समान भाव से नहीं बढ़ती है। कभी-कभी एक-दो चीजों में ही ऐसा हेरफेर हो जाता है कि सारा गणित बिगड़ जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पेट्रोल-डीजल ही है। पिछले साल दिवाली के पहले नवंबर में सरकार ने पेट्रोल-डीजल की एक्साइज ड्यूटी में पांच और दस रुपये की कटौती की थी, और एक महीने के भीतर ही खाने के तेल की महंगाई को रोकने के लिए सरकार को उनकी इंपोर्ट ड्यूटी में पांच फीसदी की कटौती करनी पड़ी थी। 
उसके बाद ही पांच राज्यों के चुनाव भी होने थे और इसी चक्कर में चार महीने से ज्यादा तक पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने का सिलसिला भी रुका रहा। हालांकि, दोनों ही चीजों के दाम अब बाजार तय करता है, लेकिन चार बड़ी पेट्रोलियम कंपनियां भारत सरकार के नियंत्रण में हैं, इसलिए अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि दाम बढ़ाने या घटाने का फैसला कब व किसके कहने से होता है? इसका सुबूत भी है कि चुनाव खत्म होने के कुछ दिन बाद से एक रोज में 80 पैसे की रफ्तार से दाम बढ़ाए जाने लगे और लगभग दस रुपये लीटर तक बढ़ते रहे। यह दिखाता है कि सरकार को इस बात का पूरा अंदाजा है कि महंगाई का मसला किसी भी दिन उसके लिए मुसीबत खड़ी कर सकता है।
पेट्रोल-डीजल के दाम कम करने या महंगाई कम करने का एक रास्ता तो सरकार आजमाकर देख चुकी है। लेकिन यही हथियार बार-बार काम नहीं कर सकता, क्योंकि एक्साइज कटौती का बोझ केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी उठाना पड़ता है और ज्यादातर राज्यों की माली हालत पहले ही काफी खस्ता है। दूसरे, इस कमाई में कटौती से सरकारों पर अपने खर्च कम करने का दबाव भी बढ़ेगा। और इस वक्त न सिर्फ राज्य, बल्कि केंद्र सरकार भी ऐसी योजनाओं पर काफी खर्च कर रही है, जिन्हें लोक-कल्याणकारी कहा जाता है। अब सवाल यह है कि अगर महंगाई के मोर्चे पर राहत देनी है, तो इनमें से किस खाते में खर्च पर कटौती की जाएगी? अभी गुजरात और हिमाचल में चुनाव आने हैं और उसके बाद तो देश लोकसभा चुनावों की तैयारी में व्यस्त हो जाएगा। ऐसे में, इस सवाल का जवाब कहां से मिलेगा? बस यही कह सकते हैं- बेखुदी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है जिसकी परदादारी है।

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