कश्मीरी पंडितों पर करम नहीं

पिछले हफ्ते मैंने दो फिल्में देखीं। पहली, द कश्मीर फाइल्स और दूसरी, 83। एक, भारतीय संविधान और सत्ता की लिजलिजी कमजोरी को उजागर कर रही थी, तो दूसरी हिन्दुस्तानी जियालों की जिजीविषा को।

मैं यहां द कश्मीर फाइल्स  पर विस्तार से चर्चा करना चाहूंगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस फिल्म ने उन तमाम जख्मों को, जो नासूर की भांति अंदर ही अंदर रिस रहे थे, उघाड़कर रख दिया है।

अमनपसंद कश्मीरी पंडितों को जिस तरह जलील कर अपनी ही सरजमीं से बेदखल किया गया, ऐसी कालिख भरी कथाएं इतिहास में दुर्लभ हैं। इनमें से कई पहले भी छन-छनकर बाहर आती रहीं, पर इस फिल्म ने समय की गर्त में दबते जा रहे आहत सत्य को समग्रता से देखने के लिए समूचे देश को प्रेरित किया है।

मैं फिल्म के निर्माता-निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री की इस बात से भी सहमत हूं कि इस फिल्म में जो दिखाया गया, हालात उससे भी कहीं ज्यादा बदतर थे।


दरअसल, बगावती खूंरेजी के छिटपुट संकेत साठ के दशक से ही मिलने शुरू हो गए थे। एक भूली-बिसरी कहानी से अपनी बात समझाने की कोशिश करता हूं।

फरवरी, 1967 में श्रीनगर के नवाकदल इलाके में बीएसएफ के एक सशस्त्र गार्ड को धारदार हथियारों से जीते-जी क्षत-विक्षत कर दिया गया था।

उस समय की हुकूमत ने ड्यूटी पर तैनात वरदीधारी के इस दर्दनाक अंजाम को जरूरत के मुताबिक गंभीरता से नहीं लिया। क्या वे वाकई इतने नादान थे कि अपने सूबे की फिसलन का अंदाज नहीं लगा सके?


उस दौरान जम्मू और कश्मीर में विधानसभा चुनाव चल रहे थे। इस चुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल की थी और गुलाम मोहम्मद सादिक दोबारा मुख्यमंत्री की कुरसी पर जा विराजे।

संयोगवश, इंदिरा गांधी एक साल पहले ही दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुई थीं। कश्मीरी होने के नाते वह यकीनन वहां के हालात को समझती थीं।

कश्मीर और कश्मीरियों को मुख्यधारा में लाने के लिए अगर तभी से कोशिशें शुरू हो जातीं, तो शायद हम एक बड़े खून-खराबे से बच गए होते। यहां मुझे फारुख अब्दुल्ला का बयान याद आ रहा है। उन्होंने हाल में कहा कि मेरा दिल पंडितों के पलायन से रोता है।

ऐसा जरूर होता होगा, पर यह भी सच है कि बहुत सी खौफनाक घटनाएं उनके सत्ताकाल में हुईं। वह अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह उन्हें रोकने में नाकामयाब साबित हुए। 


आप चाहें, तो 13 अक्तूबर,1983 के घटनाक्रम को याद कर सकते हैं। उस दिन श्रीनगर में भारत और वेस्टइंडीज के बीच एकदिवसीय मैच खेला गया था। कपिल देव की अगुवाई में कुल चार महीने पहले ही भारत ने विश्व कप जीता था।

कायदे से उनकी टीम का घाटी में जबरदस्त खैरमकदम होना चाहिए था, पर हुआ उल्टा। भारतीय क्रिकेटरों को दर्शकों की ओर से भद्दी-भद्दी गालियां दी गईं और वेस्टइंडीज के खिलाड़ियों का उत्साहवर्द्धन किया गया।

मुझे 83 देखते वक्त बार-बार यह मलाल सताता रहा कि जिन खिलाड़ियों ने देश का माथा ऊंचा किया, उनके साथ अपने ही देश में ऐसा घृणित व्यवहार क्यों किया गया?

वे लाइव टीवी और सोशल मीडिया के दिन नहीं थे, इसलिए अधिकांश अखबारों में दर्शकों की इस बेहूदगी की खबर उस तरह से नहीं छपी, जिस तरह छपनी चाहिए थी, पर दिल्ली और श्रीनगर के हुक्मरान इस शर्मनाक वाकये के संकेत क्यों नहीं समझ सके? तय है, 1967 से 1983 के बीच पाकिस्तान प्रेरित अलगाववादियों ने खुद को भारतीय राज-व्यवस्था से कहीं अधिक मजबूत कर लिया था।


वह मैच आंधी और तूफान की वजह से बीच में रोकना पड़ा था, पर घाटी की खूबसूरती के पीछे जो बवंडर आकार ले रहा था, उसे या तो समझा नहीं जा रहा था या जान-बूझकर दरकिनार कर दिया गया था। तीन साल बाद 1986 में घाटी के तमाम शहरों में हिंदू-विरोधी दंगे हुए।

समझदार कश्मीरी पंडितों ने तभी से अपना बोरिया-बिस्तर समेटना शुरू कर दिया। कुछ ने अपने परिजनों को जम्मू या देश के अन्य हिस्सों में बसने के लिए भेज दिया था।

बड़ी संख्या में पंडित तब भी घाटी में डटे रहे। उन्हें अपने हुक्मरानों से आस थी कि वे हंगामा करने वालों पर काबू पा लेंगे। उन्हें हताश और निराश होना पड़ा।


कश्मीर से बाहर आ बसने वाले लोग तब भी बताते थे कि वहां सांप्रदायिकता की शक्ल में अलगाववाद किस तरह पांव पसार रहा है। मस्जिदों में अजनबी चेहरे प्रकट होने लगे थे और जगह-जगह हिंसा कर अल्पसंख्यकों को डराने की कोशिश हो रही थी।

जो नहीं जानते, उन्हें बता दें कि कश्मीर घाटी में हिंदू और सिख हमेशा से अल्पसंख्यक थे। बाहर आ बसे लोगों की शिकायत थी कि हुकूमत उनकी सुनती नहीं। श्रीनगर के हुक्मरां अलगाववादी नहीं थे, पर अलगाववादियों के खिलाफ सार्थक कार्रवाई भी नहीं कर रहे थे।

इसकी वजह से जम्मू-कश्मीर पुलिस में पाकिस्तानपरस्त लोगों का दबदबा बढ़ रहा था। ‘उधर’ से आने वाले ‘इधर’ के बिरादरों को अपने जैसा बनाने की कोशिशों में जुटे थे। यही वजह है कि पुलिस अल्पसंख्यक उत्पीड़न की शिकायतों पर अक्सर कामचलाऊ रवैया अख्तियार करती।


इस अंदर से खोखले हो चुके तंत्र की शर्मनाक सच्चाई 8 दिसंबर, 1989 को समूचे तौर पर बेपरदा हो गई, जब दहशतगर्दों ने दिनदहाड़े देश के तत्कालीन गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया को अगवा कर लिया।

कंपकंपाती विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने उसे छुड़ाने के लिए पांच खूंखार आतंकवादियों की रिहाई का प्रस्ताव मानकर व्यवस्था के ताबूत में निर्णायक कील ठोक दी। आगे की खौफनाक वारदातों की यह फैसलाकुन शुरुआत थी। 


मैं यहां घटनाओं की तफसील में जाए बिना सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि अगर 1960 के दशक में हमने पाकिस्तान के ‘प्रॉपगेंडा वार’ और कश्मीरी हुक्मरानों की बदनीयती को पहचानकर भारतीय राष्ट्र-राज्य की संकल्प शक्ति का प्रयोग किया होता, तो यकीनन हालात इतने नहीं बिगड़ पाते।

लाखों की तादाद में कश्मीरी पंडितों का पलायन उन सभी सत्ताधारियों के मुंह पर तमाचा है, जो संविधान की रक्षा की शपथ लेकर सत्ता-सदनों में प्रविष्ट हुए थे। ऐसे राष्ट्र अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकते, जो अतीत की गलतियों से सबक नहीं लेते।

इस फिल्म ने यह बहस छेड़ने का मौका दिया, अच्छी बात है, पर विनम्रता के साथ याद दिलाना चाहूंगा कि अर्द्धसत्य झूठ से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है।


यह सत्य है कि उन दिनों घाटी की मस्जिदों से कश्मीरी हिंदुओं के खिलाफ प्रवाद फैलाया गया, पर यह भी सच है कि बहुत से मुसलमानों ने अपने पड़ोसियों की रक्षा की थी। तमाम मुस्लिम ड्राइवर ऐसे थे, जो अपनी जान की परवाह किए बिना अपने हिंदू पड़ोसियों को सकुशल घाटी से बाहर निकाल  लाए।

बाद के वर्षों में भी ऐसे लोगों का मेल-मिलाप पुराने रसूख के साथ जारी रहा। घाटी में हिंदुओं के साथ मुसलमानों के भी घर आतंकियों ने तबाह किए।

इनमें से बहुतों को अपनी मूल रिहाइश से बेदखल तक होना पड़ा। द कश्मीर फाइल्स  में एकाध घटनाएं इस तरह की भी शामिल कर ली गई होतीं, तो लोगों तक समूची तस्वीर सही तौर पर पहुंच पाती।


हालांकि, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंतत: यह एक फिल्म है। सिनेमाई पटकथा और इतिहास ग्रंथ में फर्क होता है।  

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