मारक महंगाई

ऐसे दौर में जब कोरोना संकट से उपजे हालात में आम आदमी की आय के स्रोतों का हुआ संकुचन अभी सामान्य स्थिति तक नहीं पहुंचा है, आये दिन बढ़ने वाली महंगाई मुसीबत बढ़ा रही है। निस्संदेह, विकास सरकार का प्रिय शगल है, उसके लिये आय के स्रोत भी चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि कोरोना संकट के दौरान सरकार की आय के स्रोत भी सिमटे हैं। लेकिन सत्ताधीशों की राजनीतिक विलासिताएं भी तो कम नहीं हुई हैं।

देश के विभिन्न भागों में पेट्रोल-डीजल के दाम सौ का आंकड़ा पार कर गये हैं, जिससे माल-ढुलाई में वृद्धि से महंगाई की लहर आना सुनिश्चित है। हाल ही में घरेलू गैस के दामों में वृद्धि चुभने वाली है। अब सामान्य गैस सिलेंडर की कीमत नौ सौ रुपये पार कर चुकी है। सरकार की दलील है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में तेजी से देश में ईंधन के दाम बढ़ रहे हैं। इसका निर्धारण देश की पेट्रोलियम कंपनियां करती हैं।

यह भी कि इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है। लेकिन यह बयान कई सवालों को जन्म देता है कि जब कोरोना संकट के दौरान कच्चे तेल के दामों में अप्रत्याशित कटौती हुई तो उसका लाभ उपभोक्ताओं को क्यों नहीं दिया गया? उस दौरान सरकार ने नये टैक्स क्यों लगाये? क्यों पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाने के लिये ईमानदार कोशिश नहीं की जाती?

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि केंद्र व राज्य सरकारें पेट्रोलियम पदार्थों पर मनमाना कर लगाकर अपना खजाना भरती हैं। तेल की कीमत का दो-तिहाई हिस्सा केंद्र व राज्य सरकारों के खाते में जाता है। ऐसे वक्त में जब कोरोना संकट में परिवार चलाने वाले लाखों लोग असमय काल कवलित हो गये, लाखों लोगों की नौकरियां चली गई, लाखों लोगों की तनख्वाहें कम हो गई हैं तो क्या सत्ताधीशों को संवेदनशील व्यवहार दिखाते हुए आम आदमी को राहत देने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?

दरअसल, ऐसा भी नहीं है कि महंगाई की आग सिर्फ पेट्रोलियम पदार्थों में लगी है। दूध, खाद्य तेलों, दालों व चायपत्ती की कीमतें पूछकर आम आदमी चौंकता है। उसे ये बढ़ी हुई अप्रत्याशित कीमतें टीस देती हैं। सत्ताधीश भी जानते हैं कि इन चीजों के बिना आम आदमी का गुजारा नहीं होता, इसलिये चलने दो। लेकिन देश में कोई तंत्र तो होना ही चाहिए जो बाजार की निरंकुश सत्ता को चुनौती दे सके। देश में मानसून सामान्य रहा है।

खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है। तो फिर खाने-पीने की वस्तुओं की कीमत क्यों बढ़ रही है? देश के अन्न उत्पादक को भी लाभ नहीं है और उपभोक्ता को भी लाभ नहीं है तो लाभ में कौन है? जो राजनीतिक दल कल तक महंगाई का विलाप करते थे और गैंस का सिलेंडर लेकर सड़कों पर उतरा करते थे, उन्हें क्या आम आदमी की आह दिखायी नहीं देती? देश में त्योहारों का मौसम आ रहा है। जब व्यक्ति दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति बड़ी मुश्किल से कर पा रहा है तो वह क्या त्योहार मनाएगा?

रेलवे के कर्मचारियों के लिये सरकार ने बोनस की घोषणा कर दी है। यह तथ्य है कि कोरोना संकट मे रेलें सामान्य ढंग से चल नहीं पायी हैं। केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा महंगाई भत्ते भी बढ़ा दिये जायेंगे लेकिन शेष बड़ी आबादी को राहत देने के लिये कुछ नहीं किया जायेगा। आखिर जनता इस महंगाई की सुनामी से कब और कैसे उबरेगी? जो लोग कोरोना की लहर से बच गये, वे महंगाई की लहर की चपेट में हैं। कीमतें रोज नये कीर्तिमान बना रही हैं।

सत्ताधीश खामोश हैं। जनता को भी नहीं मालूम कि इस महंगाई की सीमा कहां तक है। देश के लोगों को कैसे चीजें उचित दाम पर मिलें, इसी के प्रबंधन का नाम तो सरकार है। कहीं न कहीं ऐसा लगता है कि आवश्यक वस्तु संग्रहण पर अंकुश खत्म होने से जमाखोरी अनियंत्रित हो गई है। ऐसे में सरकारों को कीमत नियंत्रण के तात्कालिक और दूरगामी उपायों के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए ताकि आम आदमी कुछ तो राहत महसूस कर सके।

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