बचाव हो प्राथमिकता

अफगानिस्तान में जिस तेजी से घटनाक्रम बदला, उसने पूरी दुनिया को हैरत में डाला है, जिसके चलते तमाम देशों के नागरिकों की सुरक्षित वापसी को अंजाम देना संभव नहीं हो रहा। अमेरिका व नाटो सेनाओं की वापसी का कार्यक्रम घोषित होने के बाद तालिबान की सत्ता में वापसी तय थी लेकिन इतनी जल्दी काबुल सरकार का पतन हो जायेगा, ऐसी उम्मीद न थी। अत: पंद्रह अगस्त को तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा किये जाने के एक सप्ताह बाद भी बड़ी संख्या में भारतीय अफगानिस्तान के विभिन्न शहरों में फंसे हुए हैं।

इनमें वे भारतीय कर्मचारी भी शामिल हैं जो इस युद्धग्रस्त देश में विभिन्न विकास परियोजना स्थलों पर तैनात थे। तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जा करने के दो दिन के भीतर भारत सरकार ने राजदूत व दूतावास के अन्य कर्मचारियों समेत करीब दो सौ लोगों को अफगानिस्तान से निकाल लिया।

सोलह अगस्त की पहली उड़ान में चालीस लोगों को वापस लाया गया, उसके बाद डेढ़ सौ लोगों को भारत लाया गया। ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार ने दूतावास को बंद करके और राजनयिकों व अन्य अधिकारियों को तुरंत एयरलिफ्ट करके एकतरफा सोचा और उस पर तुरंत कार्रवाई की। यद्यपि भारत सरकार लगातार इस बात पर बल देती रही है कि अफगानिस्तान से सभी भारतीयों को सुरक्षित निकालना उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है और रहेगी।

लेकिन हालात की जटिलताओं के चलते उत्पन्न होने वाली बाधाओं का दूरदृष्टि के साथ आकलन नहीं किया गया। अफगानिस्तान के विभिन्न शहरों में फंसे भारतीयों की निकासी में आने वाली बाधाओं को ध्यान में रखकर रणनीति तैयार करने की जरूरत थी। दरअसल, काबुल में सरकार के पतन के बाद ही पूरे अफगानिस्तान में अराजकता का माहौल व्याप्त हो गया है।

प्रशासन के नाम पर आधुनिक हथियारों से लैस तालिबानियों का कब्जा है। यहां तक कि हवाई अड्डे आने वाले लोगों को जगह-जगह रोका जा रहा है। ऐसे में भारतीय दूतावास से मदद न मिलने के कारण अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों की स्थिति बेहद चिंताजनक हो चली है।

दरअसल, इन विषम परिस्थितियों के बीच अफगानिस्तान में सैकड़ों ऐसे भारतीय कामगार हैं, जो खुद को बेहद मुश्किल में फंसा पा रहे हैं। कई भारतीय कामगारों के पास उनके पासपोर्ट तक नहीं हैं। ये उनके नियोक्ताओं ने अपने पास जमा करा लिये थे। जब तालिबान ने चौतरफा हमला किया तो ये नियोक्ता अपनी जान बचाकर भाग खड़े हुए।

ऐसे में इन भारतीय कामगारों का अफगानिस्तान से निकलना बेहद जटिल होता जा रहा है। हालांकि, इन मुश्किल हालात में दस्तावेजों को निर्णायक कारक नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि इन परिस्थितियों में उनकी जीवन सुरक्षा ही दांव पर लगी हुई है। ऐसे में स्थिति और ज्यादा खराब हो जाती है जब परदेश में फंसे लोगों की सहायता कर सकने वाला दूतावास का कोई कर्मचारी भी उपलब्ध न हो।

केंद्र सरकार को नागरिकों के हित में अपने अन्य विकल्पों पर अतिशीघ्र विचार करना चाहिए। अन्य चैनलों के माध्यम से तालिबान से संवाद की गुंजाइश भी रखनी चाहिए ताकि मुश्किल हालात में फंसे भारतीयों के जीवन की रक्षा की जा सके। कूटनीतिक स्तर पर प्रयासों के जरिये तालिबान को अहसास कराया जाना चाहिए कि पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान के रचनात्मक विकास में निर्णायक भूमिका निभायी है।

भारत ने करीब तीन अरब डॉलर से अधिक धनराशि का अफगानिस्तान की विभिन्न विकास योजनाओं में बड़ा निवेश किया है। इसमें अफगानिस्तान की चार सौ से अधिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर किया गया निवेश भी शामिल है। यहां तक कि अफगानिस्तान के नये संसद भवन का निर्माण भी भारतीय निवेश के जरिये किया गया।

ऐसे में अफगानिस्तान के लोगों के कल्याण के लिये किये गये भारतीय प्रयासों को यूं ही जाया नहीं होने देना चाहिए। जल्दी ही काबुल में नयी तालिबान सरकार का गठन होने जा रहा है। भारत को अपने रणनीतिक हितों की रक्षा के लिये और स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में किये गए विकास की पहल के साथ आगे बढ़ना चाहिए। काबुल में भारत की उपस्थिति नये शासकों के साथ रचनात्मक रूप से जुड़ने की कोशिश के रूप में होनी चाहिए। 

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