दागी नहीं मंजूर

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दिये एक आदेश में देश के लोकतंत्र की शुचिता के लिये बड़ा व सख्त कदम उठाया है। अब जागरूक जनता व चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि पाक-साफ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये सजग-सतर्क रहकर कदम उठाये। कोर्ट ने मंगलवार को पिछले बिहार चुनाव के दौरान दागी उम्मीदवारों के बाबत अपने पिछले निर्देशानुसार जानकारी समय रहते सार्वजनिक न करने पर राजनीतिक दलों पर नकद जुर्माना लगाया।

चुनावों के दौरान उम्मीदवारों का आपराधिक इतिहास सार्वजनिक करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन न करने पर भाजपा व कांग्रेस पर एक-एक लाख रुपये तथा एनसीपी व सीपीएम पर पांच-पांच लाख का जुर्माना लगाया गया। न्यायमूर्ति फली नरीमन और न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने विभिन्न दलों पर आदेश न मानने पर दर्ज अवमानना की याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान यह फैसला सुनाया।

इस बाबत फरवरी, 2020 में कोर्ट ने दलों को यह बताने का निर्देश दिया था कि दागियों को चुनाव में खड़ा करना क्यों जरूरी है। साथ ही दागियों पर दर्ज मुकदमों का विवरण पार्टी वेबसाइट पर डालना जरूरी था। इस कदम को मतदाताओं के जानने के अधिकार को प्रभावी व सार्थक बनाने के लिए जरूरी बताया गया था। अब अदालत ने जरूरी कर दिया है कि दलों की वेबसाइट के होमपेज पर ‘आपराधिक इतिहास वाले उम्मीदवार’ कैप्शन डाला जाये।

अदालत ने चुनाव आयोग से कहा है कि वह मतदाता जागरूकता अभियान चलाये। इसके लिये एक मोबाइल एप बनाने को कहा ताकि मतदाता दागी उम्मीदवारों का अतीत अपने मोबाइल पर आसानी से जान सकें। साथ ही एक सेल बनाने को भी कहा जो अदालत के फैसले के कि्रयान्वयन की निगरानी करेगा। सेल के जरिये उल्लंघन की जानकारी कोर्ट को देने को कहा गया है ताकि अवमानना की कार्रवाई हो सके। शीर्ष अदालत ने मतदाता जागरूकता के लिये सोशल मीडिया, वेबसाइटों, टीवी विज्ञापनों, प्राइम टाइम डिबेट, पैम्फलेट व विज्ञापन के जरिये अभियान चलाने को कहा।

इसके अतिरिक्त अदालत ने चुनाव आयोग को चार सप्ताह में एक फंड बनाने के भी निर्देश दिये, जिसमें अदालत की अवमानना पर लगने वाले जुर्माने की रकम को डाला जा सके। शीर्ष अदालत ने यह भी आदेश दिया कि दागी उम्मीदवारों के बारे में सूचना राजनीतिक दल 48 घंटों के भीतर जारी करें, न कि नामांकन दाखिल करने की तारीख से दो सप्ताह पहले। साथ ही चुनाव आयोग से कहा कि न्यायालय के निर्देश का पालन न करने का मामला संज्ञान में लायें ताकि अदालत की अवमानना के तहत कार्रवाई हो सके।

निस्संदेह, कोर्ट की पहल एक सार्थक कदम है लेकिन आर्थिक दंड चुकाना साधन संपन्न राजनीतिक दलों के लिये बायें हाथ का खेल है। कोर्ट को आदेशों का उल्लंघन करने पर सख्त दंड का प्रावधान रखना चाहिए। अब नागरिकों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे कोर्ट व आयोग की पहल पर विवेकशील पहल करें। दरअसल, दागी जनप्रतिनिधि राजनीतिक दलों के लिये परेशानी नहीं अतिरिक्त योग्यता के वाहक बने हुए हैं।

यही वजह है कि जहां देश में वर्ष 2004 में 24 फीसदी सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे, वहीं एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2019 में इनकी संख्या 43 फीसदी हो गई है। दूसरी ओर शीर्ष अदालत ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल अपने सांसदों व विधायकों के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले हाईकोर्ट की अनुमति के बगैर वापस नहीं ले सकते। निस्संदेह कोर्ट का यह कदम नैसर्गिक न्याय के अनुसार ही राजनीति व अपराध के अपवित्र गठबंधन को रोकने में सहायक होगा।

हाल के दिनों में कई राज्य सरकारों ने अपने सांसदों व विधायकों के खिलाफ दर्ज मामले वापस लिये हैं। निस्संदेह कई मामले पिछले विपक्षी दल की सरकारों द्वारा राजनीतिक दुराग्रह के चलते दर्ज किये गये होंगे, लेकिन वास्तविकता का पता लगाना तो अदालतों का काम है। विषय की गंभीरता को देखते हुए शीर्ष अदालत ने हाईकोर्टों के रजिस्ट्रार जनरल को कहा है कि अपने क्षेत्र के ऐसे मामले वे संबंधित हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में लायें। निश्चय ही न्यायिक सख्ती व जन दबावों से राजनीति की मैली धारा एक दिन साफ होगी।

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