हम सब नागरिक हैं

प्रस्ताव करता हूं कि अनुच्छेद 31 के खंड (1) में, ‘नर और नारी सभी नागरिकों को समान रूप से… पर्याप्त… अधिकार हों’ इन शब्दों के स्थान पर ‘प्रत्येक नागरिक को… पर्याप्त… अधिकार हों, यह शब्द रख दिए जाएं। 
परिषद के समक्ष यह प्रस्ताव रखते हुए सर्वप्रथम मैं चाहता हूं कि मेरी इस बात को समझ लिया जाए कि यह संशोधन केवल भाषा में सुधार करने का प्रयत्न ही नहीं है।

मैं स्वयं को अंग्रेजी भाषा का प्रमाणित विद्वान नहीं कहता और इस भाषा की विशेष रचना शैली के रहस्यों में तो मैं और भी कम प्रवीण हूं। मैं इस मामले को व्यावहारिक ज्ञान के दृष्टिकोण से ही देखता हूं। इस खंड में ‘नागरिकों’ शब्द का जिस प्रकार प्रयोग हुआ है, उस रूप में यह इतना समूह वाचक है कि मुझे भय है, इस शब्द का व्यक्तिवाचक आशय दृष्टि से लोप हो जाना अति संभव है।

अत: मैं ‘नागरिकों’ शब्द के स्थान पर ‘प्रत्येक नागरिक’ शब्द रखने का प्रस्ताव रख रहा हूं, ताकि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार होगा। मेरे संशोधन से व्यक्तिवाचक आशय अधिक अच्छी तरह व्यक्त होता है। यही भाषा बाद में इसी अध्याय के एक अनुच्छेद में, जिसमें प्राथमिक शिक्षा के अधिकार की चर्चा की गई है, प्रयुक्त हुई है, अत: मैं कोई नवीन शब्द का सुझाव नहीं दे रहा हूं, जो मसविदा लेखक की शब्दावलि में स्वीकार न किया गया हो।

…इस शब्द को समूहवाचक अर्थ में लें, तो इससे अंत में सामान्य (औसत) नागरिक की समृद्धि के लिए अनिश्चित आशा ही व्यक्त होगी। औसत का नियम बहुत धोखे में डालने वाला नियम है और इससे आपको एक ऐसा संतोष सा हो जाता है, जिसका वास्तव में कोई आधार नहीं होता।

मेरी यह इच्छा नहीं है कि इस वाद-विवाद को ऐसा बना दूं कि परिषद् का मनोरंजन करने की योग्यता का छिछला प्रदर्शन करने लगूं, पर मैं परिषद् को यह बताए बिना नहीं रह सकता कि एक यंत्र के समान काम करने वाले अंक-विशेषज्ञ के बुद्धि चातुर्य से औसत के नियम को कैसे बिगाड़ा जा सकता है और ऐसा परिणाम निकाला जा सकता है, जो यथार्थता के सर्वथा प्रतिकूल हो। उदाहरण के लिए, क्या मैं निवेदन करूं कि मैंने एक महिलाश्रम की कहानी सुनी है।

जब महिलाश्रम के प्रबंधकों को पता चला कि आश्रम की दस लड़कियों में से एक लड़की ने स्पष्टत: दुराचरण किया है, तो गड़बड़ हुई और मामले की जांच करने और अपनी रिपोर्ट पेश करने के लिए एक अंक विशेषज्ञ बुलाया गया। उसने आश्रम की महिलाओं के विषय में पड़ताल की और अपनी प्रसिद्ध रिपोर्ट पेश की, जिसमें उन्होंने बताया कि आश्रम की प्रत्येक महिला 90 प्रतिशत शुद्ध है तथा दस प्रतिशत गर्भवती है।

इस बयान में उन्होंने केवल औसत के नियम का इस्तेमाल किया। मैं नहीं जानता कि इसको अच्छी तरह समझा गया है या नहीं कि विशेषज्ञ इस प्रकार के परिणामों पर पहुंच सकते हैं; और क्योंकि मैं नहीं चाहता कि हमारे विधान से हम इस विशेष प्रकार की पूर्णता प्राप्त करें, अत: मैं ‘नागरिकों’ शब्द के स्थान पर ‘प्रत्येक नागरिक’ शब्द रखना चाहता हूं, जिससे इस विषय में कोई संदेह का प्रश्न ही न रहे।


मैं समान रूप से ‘नर और नारी’ इन शब्दों को हटा देने का जो प्रस्ताव कर रहा हूं, उसका एक कारण और है। मेरे विचार में इसमें ऐसी पर्याप्त भावना है कि पुरुष महिलाओं के आश्रयदाता हैं। कोई कारण नहीं है कि पुरुष यह सोचे कि वह महिलाओं के बराबर है, उनसे उच्चतर होना तो दूर रहा। …मेरे ख्याल में पुरुषों का महिलाओं के आश्रयदाता होने का यह दिखावा, कि जैसे हम उन्हें कोई विशेष अधिकार प्रदान कर रहे हैं, विधान से निकाल देना चाहिए।


नागरिक नागरिक है, चाहे उसकी आयु, लिंग या मत कुछ हो और यह विधान द्वारा स्वीकृत मूल सिद्धांत है, इसलिए मुझे कोई कारण दिखाई नहीं देता कि हम ‘समान रूप से नर और नारी’ क्यों कहें, जैसे कि हमने नर और नारियों को समान अधिकार देने की कृपा की है, विशेषत: जबकि वे अधिकार भी निदेशक ही हैं और इनको तत्काल कार्यान्वित करना भी आवश्यक नहीं।

इन कारणों से, मेरा सुझाव है कि इस संशोधन को केवल शाब्दिक संशोधन नहीं समझना चाहिए, अपितु आशय संबंधी संशोधन समझना चाहिए  और मुझे विश्वास है कि जो इस विधान को परिषद् में रख रहे हैं, वे इस संशोधन को स्वीकार कर लेंगे।

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