संवाद में अपराध 

आज से करीब बारह साल पहले देश की राजनीति, सत्ता प्रतिष्ठान, उद्योग जगत और मीडिया को झकझोर देने वाला नीरा राडिया प्रकरण अब फिर चर्चा में है। सीबीआई ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि कई राजनेताओं, उद्योगपतियों और सरकारी अधिकारियों के साथ पूर्व कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया की रिकॉर्ड की गई बातचीत की जांच में कोई अपराध नहीं पाया गया है। यह भी दिलचस्प है कि जांच रिपोर्ट साल 2015 में ही सौंप दी गई थी। सौंपी गई रिपोर्ट के नतीजे के बारे में अब जाकर पता चला है, तो इसका सीधा मतलब है कि विगत वर्षों में इस ‘हाई प्रोफाइल’ मामले में ज्यादा रुचि नहीं ली गई है। आमतौर पर ऐसे मामलों में कुछ सिद्ध करना कठिन होता है। किसी लाभ के लिए परस्पर संवाद, समन्वय बनाना और अपने हिसाब से फैसले कराने की कोशिश करना किसी अपराध की श्रेणी में तो नहीं कहा जा सकता। हर फैसले में असंख्य लोग शामिल होते हैं, हर फैसला किसी के लिए सही, तो किसी के लिए प्रतिकूल भी हो सकता है। अत: नीरा राडिया मामले में अगर सीबीआई को किसी अपराध के साक्ष्य नहीं मिले हैं, तो अचरज की बात नहीं।
वैसे नीरा राडिया मामले में अदालत में अक्तूबर से सुनवाई शुरू हो जाएगी, तो उसके पहले सीबीआई को शायद एक और स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने की जरूरत पड़ेगी। दरअसल, यह पूरा मामला मशहूर उद्योगपति रतन टाटा द्वारा दायर याचिका के चलते उठा है। साल 2010 में कुछ टेप लीक हुए थे और रतन टाटा ने ऑडियो टेप लीक होने की जांच की मांग की थी, उन्होंने उस लीक को अपनी निजता के अधिकार का उल्लंघन बताया था। इसके अलावा, एक गैर-सरकारी संगठन ‘सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन’ ने भी टेप की जांच के लिए दबाव डाला और मांग की थी कि टेप को सार्वजनिक किया जाए। ध्यान रहे, टेप किए गए संवादों की संख्या 5,800 है। यह भी दिलचस्प है कि ये टेप कर चोरी की निगरानी या जांच के लिए किए जा रहे थे। कर चोरी का मामला तो छोटा पड़ गया, जो प्रभु-वर्गीय लोगों की परस्पर बातचीत थी, वह प्रमुखता से सामने आ गई। यह भी ध्यान रखने की बात है कि इन परस्पर संवादों को अब 13-14 साल से ज्यादा बीत चुके हैं।  देश में कॉरपोरेट लॉबिस्ट और गणमान्य लोग परस्पर कैसे-क्या बातें करते हैं, इसका अंदाजा तो सर्वोच्च न्यायालय को साल 2013 में ही हो गया था और लोगों के बीच भी वे संवाद सुर्खियों में रहे थे, लेकिन अब उनमें अपराध के सूत्र खोजना आसान नहीं है। मतलब, साक्ष्यों के अभाव में इस प्रकरण को आगे बढ़ाना अदालत पर ही निर्भर है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2013 में सीबीआई जांच का आदेश देते हुए देश के प्रभु या प्रभावशाली वर्गों की परस्पर दुरभिसंधि की ओर इशारा किया था, लेकिन बाद में गंभीरता खत्म हो गई। वैसे अपने देश में सत्ता वर्ग और उसके आस-पास बहुत कुछ ऐसा होता है, जो नहीं होना चाहिए, लेकिन इन चीजों को रोकने के उपायों-साधनों की बड़ी कमी है। लोग भूले नहीं हैं, लगभग तीस साल पहले वोहरा समिति की रिपोर्ट संसद में पेश हुई थी, जिसमें अपराधी-नेता-अफसर की साठगांठ पर प्रकाश डाला गया था, लेकिन जमीन पर कुछ खास कार्रवाई नहीं दिखी थी। वस्तुत: किसी भी क्षेत्र में सुधार सामूहिक जिम्मेदारी है, तो हमें यह सोच लेना चाहिए कि किसी सुधार के लिए आम लोग स्वयं कितने लालायित हैं।  

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