अपना गेहूं-चावल

टूटे चावल के निर्यात पर पूरी तरह रोक लगाने और कुछ किस्मों के चावल के निर्यात पर 20 फीसदी शुल्क लगाने का केंद्र सरकार ने समझदारी भरा फैसला लिया है। यह अच्छी बात है कि कारोबारियों की सुनने के बजाय सरकार ने आम लोगों के हितों को तवज्जो दी है। ऐसा किया जाना जरूरी था, क्योंकि कम रकबे में रोपनी और मौसम की बेरुखी के कारण इस बार धान की पैदावार कम होने का अनुमान है। पिछले दिनों 100-120 लाख टन कम उपज का अंदेशा जताया गया था, जिसमें अब सुधार किया गया है और 40-45 लाख टन कमी की बात कही जा रही है। 

यह सही है कि हम तकरीबन 210 लाख टन चावल निर्यात करते हैं और वैश्विक निर्यात में हमारी हिस्सेदारी सबसे ज्यादा करीब 40 फीसदी है। मगर, इस वर्ष धान के रकबे में कमी के साथ-साथ कम मानसूनी बारिश ने बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और कुछ हद तक पश्चिम बंगाल जैसे चावल उत्पादक राज्यों में सूखे की स्थिति पैदा कर दी है। नतीजतन, सरकार ने उचित ही घरेलू जरूरतों को प्राथमिकता में रखा।
दरअसल, कारोबारी ऐसा माहौल बनाते हैं, मानो भारत के लिए खाद्यान्न का निर्यात करना निहायत जरूरी है। गेहूं का ही उदाहरण लीजिए। रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक खाद्य संकट बढ़ा दिया। फिर, भारत के उत्तर-पश्चिम इलाके में तेज गरमी के कारण पैदावार कम होने का स्वाभाविक अंदेशा था। तब भी, कारोबारी वर्ग गेहूं-निर्यात का शोर मचाता रहा, मानो वैश्विक खाद्य सुरक्षा हमारी ही जिम्मेदारी है। तब चंद संजीदा विश्लेषकों ने अनियंत्रित निर्यात से देश में खाद्य सुरक्षा प्रभावित होने का संदेह जताया और देश में कम से कम दो साल का खाद्यान्न भंडार जमा करने की वकालत की। अच्छी बात रही कि सरकार ने इस मसले पर गौर किया और निर्यात प्रतिबंधित किए। चावल के मामले में भी कारोबारी वर्ग फिर से वही राग अलाप रहा है, जिस पर ध्यान न देना ही उचित है।
इस पूरे मसले के मूल में है जलवायु परिवर्तन। यह ऐसी समस्या है, जिससे सिर्फ भारत नहीं, बल्कि पूरी दुनिया जूझ रही है। इस साल इसने गेहूं की हमारी अच्छी-खासी फसल अपनी एक मार से ही जमींदोज कर दी, जिससे करीब 30 लाख टन पैदावार कम हो गई। चावल पर तो दोतरफा मार पड़ी है। एक तो उसे प्रतिकूल मौसम का सामना करना पड़ा है, फिर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह वायरल बीमारी की चपेट में है। इससे इसकी उपज में कुल कितनी कमी आएगी, इसका अभी ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना भी कठिन है। लिहाजा, मौजूदा हालात में खाद्य सुरक्षा हमारी प्राथमिकता में होनी ही चाहिए। व्यापार-उन्मुख नीति देश में खाद्यान्न की किल्लत पैदा कर सकती है। सरकारी राशन की दुकानों से यूं ही गेहूं की जगह चावल नहीं दिया जाने लगा है। 
चरम मौसमी परिघटनाओं ने किस कदर दुनिया को प्रभावित किया है, इसका अंदाजा इसी से लगता है कि पाकिस्तान में 65 फीसदी खरीफ की फसल बह गई है। अमेरिका में मक्के की उपज 50 फीसदी कम हुई है, वहां धान की पैदावार भी प्रभावित हुई है। फ्रांस खेती के लिहाज से यूरोप का सबसे महत्वपूर्ण देश है और वहां 500 साल में सबसे गंभीर सूखा पड़ा है। इससे वहां आलू का उत्पादन कम हुआ है, जिससे पूरे यूरोप में खाद्य सुरक्षा प्रभावित होने का खतरा है। कुल जमा यही है कि जलवायु परिवर्तन से पूरी दुनिया हलकान है, और हम अपने नागरिकों को किसी दूसरे देश के भरोसे नहीं छोड़ सकते।
पूछा यह भी जाता है कि निर्यात प्रतिबंधित कर देने से उन देशों का क्या होगा, जो खाद्यान्न के लिए भारत पर निर्भर हैं? मेरा मानना है कि हमें उनके बारे में ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। अव्वल तो कोई भी देश अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए भारत पर पूरी तरह से निर्भर नहीं है। फिर हमें यह भी सोचना चाहिए कि खाद्यान्न के लिए रूस और यूक्रेन पर निर्भर 40 के करीब देश क्या युद्ध से भूख की चपेट में आ गए? इसके बजाय हमें यह सोचना चाहिए कि पूर्वी अफ्रीका से दाल मंगवाने की जगह हमें अपने देश में इसकी पैदावार बढ़ानी चाहिए। क्यों नहीं, हम अपने यहां इतनी दाल पैदा करते हैं कि हमें आयात की जरूरत न पड़े? 
भारत में तीन महीने के अंदर करीब 100 घंटे ही मानसूनी बारिश होती है। यदि जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश की स्थिति बदलती है और खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होता है, तो हमें निर्यात प्रतिबंधित करने ही होंगे और अपने भंडारण पर नजर रखनी होगी। इसके साथ ही, हमें किसानों के बारे में भी सोचना चाहिए। जिन चार राज्यों में सूखे की स्थिति बन गई है, वहां करीब 30 करोड़ किसान हैं। उनकी आजीविका खेती पर निर्भर है। क्या उनको सरकार की तरफ से समर्थन नहीं मिलना चाहिए?
बजाय इसके हम महंगाई पर चर्चा करना ज्यादा पसंद करते हैं। यह भी व्यापारिक वर्ग का एक खेल है। चावल पर ही गौर कीजिए। इसकी नई फसल अभी नहीं आई है, जो सितंबर के अंत तक आ सकती है, और करीब 400 लाख टन चावल सरकारी गोदामों में भरा पड़ा है। तब भी आखिर क्यों बाजार में इसकी कीमत में तेजी है? जब इसकी कमी नहीं है, तो मूल्यवृद्धि क्यों? जबकि, इस बढ़ोतरी का नाममात्र फायदा भी किसानों को नहीं मिल रहा। साफ है, खुले बाजार पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। आलम यह है कि पंजाब में कपास और गेहूं की पैदावार में हुए नुकसान की भरपाई के लिए किसानों को हड़ताल का सहारा लेना पड़ रहा है। अपने अन्नदाताओं की सुध लेना कब सीखेंगे हम? हर साल रिकॉर्ड पैदावार करने वाले किसानों को भी उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन क्यों नहीं दिया जा सकता?  
जाहिर है, सरकार को कारोबारी फायदा नहीं, बल्कि लोगों का लाभ देखना चाहिए। यह समझना होगा कि अतिरिक्त पैदावार हमारे लिए बोझ नहीं है। चीन में 6,500 लाख टन अनाज ‘सरप्लस’ है, फिर भी वह हर साल लगभग 1,500 लाख टन खाद्यान्न आयात करता है। मगर अपने देश में अतिरिक्त उत्पादन होते ही कारोबारी वर्ग निर्यात का शोर मचाने लगता है। इससे पार पाने की जरूरत है। हमारी खाद्य सुरक्षा नीति का मूल पर्याप्त मात्रा में अनाज की उपलब्धता हो, न कि अधिकाधिक व्यापार।

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