बंटवारा
विस्थापन इतिहास या भूगोल के किसी भी खंड में भयंकरतम त्रासदी है। यह एक व्यक्ति का हो या किसी बड़े समूह का, शरीर और आत्मा, दोनों पर ऐसे घाव छोड़ता है, जिन्हें पीढ़ियां भुगतती हैं। ऐसा ही एक अनुभव भारतीय उप-महाद्वीप ने भोगा था 1947 में, जब दो कौमी नजरिये पर दो देश बने और लाखों परिवार अपनी जमीनों से उखड़कर दूसरी तरफ गए।
विभाजन के शिल्पी मोहम्मद अली जिन्ना ने देश का बंटवारा करा तो लिया, पर शुरू में न तो उन्हें और न ही आबादी के शांतिपूर्ण स्थानांतरण की व्यवस्था के लिए जिम्मेदार गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन को एहसास था कि इस प्रक्रिया के दौरान कितना रक्तपात होगा। माउंटबेटन ने यह सोचकर कि उपद्रवियों को तैयारी का कम मौका देने से आसन्न हिंसा रोकी जा सकती है, नया राष्ट्र बनाने की तारीख खिसकाकर 1948 की जगह मध्य 1947 कर दी, पर यह दांव उल्टा पड़ गया।
पाकिस्तान में वर्षों तक मोहाजिरों या विस्थापितों के सबसे बड़े नेता अल्ताफ हुसैन ने एक पाकिस्तानी पत्रिका को दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि विभाजन भारतीय उप-महाद्वीप के मुसलमानों के साथ सबसे बड़ा छल था। पहले वे दो, फिर तीन टुकड़ों में बंट गए। पाकिस्तान आंदोलन में सबसे सक्रिय भूमिका निभाने वाले बिहार और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की त्रासद कामदी की एक झलक राही मासूम रजा के प्रसिद्ध उपन्यास आधा गांव में गंगौली गांव के निवासियों की मासूम प्रतिक्रिया में मिलती है। दिन-रात लड़के लेंगे पाकिस्तान नारा लगाने वाले मुसलमान 15 अगस्त, 1947 को छले गए महसूस करते हैं, जब उनको पता चलता है कि गंगौली तो पाकिस्तान में गया ही नहीं। इस तरह के उदाहरण मौलाना हसरत मोहानी और दानियल लतीफी जैसे बुद्धिजीवी हैं, जो पाकिस्तान बनाने के लिए लड़ते रहे, पर जब पाकिस्तान बन गया, तो वहां गए नहीं। यह तय करना बहुत मुश्किल है कि कोई क्यों पाकिस्तान गया और क्यों नहीं गया? प्रधानमंत्री नेहरू और मौलाना आजाद के रोकने के बाद क्यों जोश मलीहाबादी पाकिस्तान चले गए और क्यों वहां जाकर भी कुर्रतुल ऐन हैदर वापस लौट आईं?
कई बार यह तर्क दिया जाता है कि भारत में रह गए मुसलमान अपनी मर्जी से भारतीय हैं, इसलिए मौका मिलने पर भी यहां से नहीं गए। क्या पश्चिमी पंजाब से आने वाले सिख और हिंदू अपनी धरती से प्यार नहीं करते थे? जैसे ही उन्हें पहला मौका मिला, वे अपना घर-द्वार छोड़कर भारत चले आए। ऐसी बेशुमार कहानियां हैं, जिनमें कोई बूढ़ा सिख अपने घर के एक-एक कमरे में जाता है, नम आंखों से सब कुछ निहारता है, और फिर बाहरी दरवाजे पर ताला लगाता है। चाभी पड़ोसी मुसलमान को सौंपकर कहता है कि घर की देखभाल करते रहना, वह जल्दी ही लौट आएगा। मगर यह लौटना कभी नहीं हो सका।
मैं एक ऐसी ही मार्मिक कथा का साक्षी बना, जिसमें कोई लौटा जरूर, पर थोड़ी सी देर के लिए ही और फिर भीगी आंखों से सब कुछ छोड़कर वापस चला आया। साल था 1999, जब एक सरकारी प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में मैं लाहौर में था। 15 सदस्यों के इस दल में एक रिटायर ब्रिगेडियर बी के खन्ना भी थे, जिनका उस दल में चयन उनकी बड़ी कोशिशों के बाद हो पाया था। कारण मुझे तो पता था, पर शेष सदस्यों को वहां जाकर ही पता चला। 1947 के एक खूनी दिन, जब शहर में मार-काट मची थी, दो साल के बच्चे को लेकर उनकी मां अपने पिता वैद्य दौलत राम खन्ना की पांच मंजिला हवेली को छोड़कर भागी थी। उनकी गोद में छिपे बच्चे ने टुकुर-टुकुर अपने परिवार के दूसरे सदस्यों को सूनी आंखों से अपने छूटते घर को निहारते देखा। आधी शताब्दी बाद यह बच्चा एक अधेड़ के रूप में अपने बिछड़े घर को देखने आया था।