अमेरिका-पाक
पाकिस्तान और अमेरिका के कूटनीतिक रिश्तों में अभी जो हलचल दिख रही है, वह दोनों देशों के आपसी कटु संबंधों में शायद ही नरमी ला सकेगी, जिसकी उम्मीद इस्लामाबाद ने लगा रखी है। अमेरिका ने महीनों तक पाकिस्तान की उपेक्षा की है और अब जाकर उसने कूटनीतिक संबंध आगे बढ़ाए हैं। इतना ही नहीं, वह आज भी अफगानिस्तान में अपनी हार की एक बड़ी वजह पाकिस्तान को मानता है और उसकी यह धारणा भी कायम है कि भविष्य में यदि कोई गंभीर मसला सामने आया, तो पाकिस्तान अमेरिका के बजाय चीन के साथ जा खड़ा होगा।
पाकिस्तान बेशक एक समय में अमेरिका का ‘भरोसेमंद सहयोगी’ रहा है, लेकिन आतंकवाद पर उसकी दोहरी नीति और अफगानिस्तान में किए गए विश्वासघात ने अमेरिकी मानस को गहरे प्रभावित किया है। इसके अलावा, शीत युद्ध लंबा चला था, जिसमें पाकिस्तान अमेरिका का सहयोगी था और चीन के उभार से भारत एवं अमेरिका की दोस्ती भी दिन-प्रतिदिन मजबूत होती गई। लिहाजा, भारत को भले ही पाकिस्तानी अपना ‘स्थायी दुश्मन’ मानते हैं, मगर न केवल दक्षिण एशिया में, बल्कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी भारत अब अमेरिका का पसंदीदा सहयोगी है। ऐसे में, अमेरिका का विश्वास जीतने के लिए पाकिस्तान के जन-प्रतिनिधियों और सैन्य अधिकारियों की कुछ उच्च-स्तरीय यात्राएं ही पर्याप्त नहीं हैं। पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान की वाशिंगटन के नए प्रतिद्वंद्वी बीजिंग से निकटता के कारण इस्लामाबाद और वाशिंगटन में भरोसा बनने में लंबा वक्त लगेगा।
असल में, अमेरिका ने इसलिए पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों को गति दी है, क्योंकि वह उन परमाणु-शक्ति संपन्न देशों के साथ अपने रिश्ते को नया रूप देने को उत्सुक है, जो बेशक कभी पश्चिम की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके, लेकिन उनके खुलेआम शत्रु भी नहीं रहे। विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन और पाकिस्तानी विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी की उच्च-स्तरीय बैठक, पाकिस्तान के एफ-16 जेट के रखरखाव के लिए 45 करोड़ अमेरिकी डॉलर के कार्यक्रम की मंजूरी, और पिछले सात वर्षों में किसी पाकिस्तानी सेना प्रमुख की पहली पेंटागन यात्रा से दोनों देशों के बीच पुराने रिश्तों की बहाली का भ्रम पैदा होता है। मगर इस बात के कोई पुख्ता संकेत नहीं हैं कि पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में आर्थिक या सैन्य इमदाद देने को लेकर अमेरिका गंभीर है। हालिया विनाशकारी बाढ़ के बावजूद पाकिस्तान को अमेरिका से 10 करोड़ डॉलर से भी कम की सहायता मिली है, जबकि साल 2010 में जब पाकिस्तान में भयानक बाढ़ आई थी, तब वाशिंगटन ने 50 करोड़ डॉलर से भी अधिक की मदद की थी।
बहरहाल, पाकिस्तान के एफ-16 विमानों के रखरखाव के लिए अमेरिका ने विदेश सैन्य बिक्री (एफएमएस) के तहत 45 करोड़ अमेरिकी डॉलर की जो मंजूरी दी है, उस पर भारत ने सख्त आपत्ति जताई है। मगर भारत और अमेरिका के बीच होने वाले 20 अरब डॉलर के रक्षा व्यापार से इसकी तुलना करें, तो यह राशि बहुत कम है। अमेरिका के अपने कुछ नीतिगत मानक हैं और फिर वह यह भी सुनिश्चित करता है कि यदि किसी अन्य देश को रक्षा उपकरण बेचे गए हैं, तो उनके रखरखाव आदि के लिए पैकेज दिए जाएं। लिहाजा, किसी भी परिस्थिति में पाकिस्तान को अपने जेट विमानों के रखरखाव के लिए खुद पैसा देना होगा। यह पहले के विपरीत होगा, जब अमेरिका अपने रियायती विदेश सैन्य वित्तपोषण (एफएमएफ) कार्यक्रम के तहत पाकिस्तान को फंड मुहैया कराता था। पाकिस्तान के मौजूदा आर्थिक संकट को देखें, तो नया कार्यक्रम निश्चय ही पाकिस्तान पर वित्तीय बोझ बढ़ाएगा।