बढ़ता बहिष्कार

अभिनेता आमिर खान की बहुप्रतीक्षित फिल्म लाल सिंह चड्ढा अभी सिनेमाघरों में पहुंची नहीं है, लेकिन फिल्म देखे बगैर ही उसके बहिष्कार की मुहिम सोशल मीडिया पर छाई हुई है। लाल सिंह चड्ढा हॉलीवुड की बहुत चर्चित और पुरस्कृत फिल्म फॉरेस्ट गंप का भारतीय रूपांतरण है, जिसमें केंद्रीय चरित्र लाल सिंह चड्ढा की भूमिका आमिर खान निभा रहे हैं। आमिर खान लाल सिंह चड्ढा के साथ चार साल बाद रुपहले परदे पर दिखाई देंगे। 2018 में उनकी फिल्म आई थी ठग्स ऑफ हिंदुस्तान, जिसमें उनके साथ अमिताभ बच्चन, कटरीना कैफ और फातिमा सना शेख भी प्रमुख भूमिकाओं में थे। बड़े बजट और बड़े सितारों वाली वह फिल्म तमाम प्रचार के बावजूद दर्शकों को पसंद नहीं आई थी और आमिर खान ने सार्वजनिक तौर पर दर्शकों की उम्मीदों पर खरा न उतरने के लिए खेद जताया था। 
साल 2015 में जब आमिर ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में अपनी पत्नी के हवाले से देश मेें असहिष्णुता, असुरक्षा व डर की बात की थी, तब उनकी तीखी आलोचना हुई थी। सरकार समर्थक राजनीतिक दलों, संगठनों व आम लोगों के अलावा फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों ने भी उनकी राय पर तीखी प्रतिक्रिया दी थी। आमिर पर्यटन मंत्रालय के अतिथि देवो भव कैंपेन के ब्रांड एंबेसडर से हटा दिए गए थे और ई-कॉमर्स से जुड़ी एक कंपनी ने भी उन्हें अपने विज्ञापन से हटा दिया था। इस विवाद के बाद उनकी फिल्म दंगल  के बहिष्कार की मुहिम भी सोशल मीडिया पर खूब चली थी, लेकिन  दंगल न केवल देश में सुपरहिट साबित हुई, बल्कि विदेश में भी खूब तारीफ और पैसा बटोर गई।  अब चार साल बाद लाल सिंह चड्ढा  की रिलीज से पहले कट्टरपंथी लोग आमिर के सात साल पुराने उस बयान को खोद लाए हैं, जब उन्होंने मोदी सरकार की पहली पारी में देश के हालात पर चिंता जताते हुए अपनी राय रखी थी। दिलचस्प बात यह है कि इस बहिष्कार अभियान की लपेट में सरकार समर्थक अभिनेता अक्षय कुमार की रक्षाबंधन भी आ गई है, जो 11 अगस्त को  ही सिनेमाघरों में पहुंचेगी। अक्षय अपनी पुरानी फिल्म ओ माई गॉड  की वजह से कट्टरपंथियों के निशाने पर हैं। परेश रावल और अक्षय कुमार की उस फिल्म पर हिंदुओं की भावनाएं आहत करने के आरोप लगे थे, हालांकि, फिल्म ने कमाई अच्छी की थी। 
आहत भावनाओं के आधार पर फिल्मों के विरोध और बहिष्कार अभियान की परंपरा नई नहीं है। मशहूर फिल्मकार यश चोपड़ा ने 1961 में एक फिल्म बनाई थी धर्मपुत्र, जो आचार्य चतुरसेन के उपन्यास पर आधारित थी। फिल्म में आजादी, विभाजन, हिंदू-मुस्लिम कट्टरता, सांप्रदायिक तनाव और सौहार्द का ताना-बाना था। शशि कपूर ने कट्टर हिंदू नौजवान की भूमिका निभाई थी, जिसमें रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास गोरा के केंद्रीय चरित्र की झलक भी थी। फिल्म की रिलीज के बाद बवाल मच गया, सिनेमाघरों में तोड़फोड़ हुई। उसके बाद यश चोपड़ा ने राजनीतिक व सामाजिक तौर पर संवेदनशील विषयों पर फिल्म बनाने से तौबा कर ली और प्रेम कहानियों की तरफ मुड़ गए। सोशल मीडिया के इस दौर में विरोध, बहिष्कार की अराजकता हमारे देश में हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ी है। संजय लीला भंसाली की फिल्मों, गोलियों की रासलीला रामलीला, पद्मावत  और बाजीराव मस्तानी की कहानियों, शीर्षक, प्रस्तुतिकरण को लेकर खूब बवाल हुआ, लेकिन दर्शकों ने इन्हें पसंद किया और ये सभी फिल्में बेहद कामयाब साबित हुईं। माई नेम इज खान, लिपस्टिक अंडर माई बुर्का भी बहिष्कार अभियान की वजह से चर्चा में रही हैं, तो क्या किसी फिल्म के बहिष्कार अभियान से लोगों में बढ़ने वाली अतिरिक्त उत्सुकता अंतत: उसके व्यावसायिक पक्ष की मदद करती है? फिर आमिर खान को क्यों सफाई देनी पड़ रही है कि उन्हें अपने देश से बहुत प्यार है, क्यों वह अपील कर रहे हैं कि उनकी फिल्म का बहिष्कार न किया जाए? आमिर की पिछली फिल्म के बाद के चार साल में मनोरंजन की दुनिया काफी बदल गई है। दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाना निर्माताओं के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। अगर नकारात्मक प्रचार का शोर बढ़ जाए और दर्शक फिल्म देखने न आएं, तो करोड़ों का नुकसान हो सकता है। इसीलिए अब निर्माता और अभिनेता काफी सचेत हो गए हैं। 
किसी समुदाय की भावनाओं का ख्याल रखने में कोई समस्या शायद ही किसी को हो, पर हर कला माध्यम में सशक्त अभिव्यक्ति ज्यादा स्वतंत्रता की मांग करती है। यह छूट समाज और उसकी संस्थाएं देती रही हैं। आजकल के हालात देखकर लगता है कि हमारा समाज आर्थिक व तकनीकी तौर पर तो आधुनिक व समृद्ध हुआ है, केवल पैसे, कपड़े-लत्ते, गाड़ी बंगला आदि की वजह से आधुनिक दिखता है, पर हमारी सोच संकुचित हो गई है, मध्ययुगीन। महा स्वच्छंद, महाआधुनिक समाज की नैतिकता किसी फिल्म से या किसी अभिनेता के न्यूड फोटो से खंडित हो जा रही है, यह भी हमारे पाखंड की पराकाष्ठा ही है। 
तो क्या अभिनेताओं, लेखकों, रंगकर्मियों, चित्रकारों, मूर्तिकारों को सोशल मीडिया पर धर्म-संस्कृति के स्वयंभू  ठेकेदारों, ट्रोल सेनाओं के आगे समर्पण कर देना चाहिए? बिल्कुल नहीं। सिनेमा या अन्य कोई भी कला माध्यम सिर्फ लोगों का मनोरंजन नहीं करता, उन्हें संवेदनशील व बौद्धिक रूप से अधिक जागरूक और सक्षम बनाने की शक्ति भी रखता है। 75 साल के आजाद भारत की सामाजिक सांस्कृतिक संवेदना के सृजन में हमारे सिनेमा का बहुत बड़ा योगदान है। इसे नजरअंदाज करना नासमझी होगी। हमारा फिल्म उद्योग अपने सौ साल से भी ज्यादा के सफर में साझा संस्कृति और धर्मनिरपेक्ष सोच के तहत ही फला-फूला है। उस परंपरा पर हमला करना, किसी कलाकार को उसके धर्म, उसके काम से इतर विचारों के आधार पर निशाना बनाना गलत है। 
दुर्भाग्य से सोशल मीडिया पर धर्म, संस्कृति, परंपरा के नाम पर सिनेमा, किताबें, नाटक, चित्र आदि के बहिष्कार का यह चलन हमारे समाज में उस नकारात्मक  राजनीति का बढ़ता असर भी दिखाता है, जिसे अपनी सोच से अलग कुछ भी बर्दाश्त नहीं है। इससे हमारा बहुत नुकसान हो रहा है। भारत की सांस्कृतिक परंपरा की विराटता अभिव्यक्तियों की बहुलता पर विकसित और समृद्ध हुई है। उसे नष्ट करने के प्रयासों का विरोध होना चाहिए। फिल्म अच्छी न लगे, तो उसके बारे में राय बनाने और जताने की सबको छूट है, लेकिन देखने से पहले ही बहिष्कार की बात नादानी है।

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