जब बढ़ेगी सद्भावना

महोदय, अब हम इस अध्याय के अंतिम भाग पर आ गए हैं। इस अनुच्छेद 25 द्वारा देश के प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार प्राप्त होता है कि इस अनुच्छेद में प्रत्याभूत सभी स्वतंत्रताओं को वह प्राप्त कर सके।

वह सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है और वहां यह मांग कर सकता है कि इन कानूनों को कार्यान्वित किया जाए। यह इस अध्याय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अनुच्छेद है। बिना इसके उन सब अनुच्छेदों का कोई अर्थ नहीं रहेगा, जिन्हें हमने स्वीकार किया है। …ठीक ही यह संविधान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अनुच्छेद है।

वास्तव में, यह ऐसा अनुच्छेद है, जो समस्त मूलाधिकारों को प्रभावी बनाता है। यदि किसी के साथ अन्याय हो, तो इस अनुच्छेद के अधीन कोई भी उसका उपाय कर सकता है। जब हम इस अनुच्छेद पर इस अध्याय के प्रभावी भाग के रूप में विचार करते हैं, तो हमने अब तक जो कुछ किया है, हम उस पर सिंहावलोकन कर सकते हैं।

वास्तव में, यह मूलाधिकारों का अध्याय है। हमने सब प्रकार के भेदभावों के विरुद्ध प्रत्याभूति दी है, हमने यह भी प्रत्याभूति दी है कि अस्पृश्यता का अंत कर दिया जाएगा; अब तक परिषद ने जितने कार्य किए हैं, यह उनमें सबसे ऐतिहासिक कार्य है; हमने अनुच्छेद 13 में स्वतंत्रता का घोषणापत्र स्वीकार किया है।

मुझे आशा है कि हम अनुच्छेद 15 को भी पारित कर देंगे, जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा कानून के समक्ष स्वतंत्रता की प्रतिभूति दी गई है। तत्पश्चात, हमने अल्पसंख्यकों के लिए सांस्कृतिक तथा धार्मिक, दोनों प्रकार के अभिरक्षण रखे हैं। संपत्ति विषयक अधिकार अभी अंतिमरूपेण स्वीकृत होना है।

मेरे विचार में ये सब अधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, किसी नागरिक के लिए यह अत्यंत मूल्यवान अधिकार हैं। मैं अपने मित्रों से, जो कि कल यह समझते थे कि वे प्रावधान अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए पर्याप्त अभिरक्षण नहीं हैं, कहता हूं कि अल्पसंख्यकों का अंतिम अधिकार बहुसंख्यकों की सद्भावना है।

व्यक्तिगत रूप में मेरा ख्याल है कि बहुसंख्यक इस विषय में चिर सीमा तक पहुंच गए हैं। मैं एक बात और भी बता दूं कि मूलाधिकार समिति विभाजन से पूर्व बनी थी। वास्तव में, विभाजन से पूर्व ही इस रूप में इन अधिकारों को तैयार किया गया था। अल्पसंख्यकों के अधिकार इस आधार पर रखे गए थे कि विभाजन नहीं होगा।

फिर भी हमने उनमें कोई परिवर्तन नहीं किया है। मैं एक गुप्त भेद नहीं बता रहा हंू, जब मैं कहता हूं कि हमारे महान नेता सरदार पटेल ने हमें कहा था, कृपया इन धार्मिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों में कोई हस्तक्षेप मत करिए, क्योंकि वे विभाजन से पूर्व के एक समझौते का भाग हैं। 


यदि कोई कहता है कि ये अधिकार अपर्याप्त हैं, तो यह कृतघ्नता की पराकाष्ठा है। मेरे विचार में हमने ऐसे अधिकार प्रत्याभूत किए हैं, जिनके लिए संभवत: हमारे लोग भविष्य में कहेंगे कि हमने इन अधिकारों के विषय में सौदा किया है।

हमने अभी घोषणा की है कि शिक्षालयों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। हमारे 30 करोड़ लोग हिंदू हैं, किंतु उन्हें शिक्षालयों में विश्व मान्य धार्मिक पुस्तक गीता  के भी पढ़ने का अधिकार नहीं होगा। हमने ऐसा क्यों किया है? क्योंकि उस समय, यानी विभाजन से पहले यह सोचा गया कि यहां विभिन्न धर्म होने के कारण धर्म शिक्षा नहीं होनी चाहिए। 


अब जबकि 33 करोड़ भारतीयों में से केवल तीन करोड़ ही अल्पसंख्यक हैं, तब भी बहुसंख्यक अपने बच्चों को अपनी जाति के धार्मिक सिद्धांत पढ़ाने के अवसर का परित्याग कर रहे हैं। फिर भी हमने इन अधिकारों को नहीं बदला है, क्योंकि हमारे नेता ने इनमें हस्तक्षेप करने के लिए हमें मनाही कर दी है।

मेरे विचार में बहुसंख्यकों ने अल्पसंख्यकों को कितना आश्रय देने का प्रयत्न किया है, इस बात का ध्यान रखा जाएगा और यह ठीक नहीं होगा कि कोई आगे बढ़कर जोर-जोर से बहुसंख्यकों को गालियां दे कि उन्होंने पर्याप्त अभिरक्षण नहीं रखे हैं। मेरे विचार में अल्पसंख्यकों की असली प्रत्याभूति बहुसंख्यकों की सद्भावना हैं।

मुझे आशा है कि इन मूलाधिकारों के आधार पर हम इस देश में ऐसा राज्य स्थापित कर सकेंगे, जो कि हमारे महान नेता राष्ट्रपिता के आदर्शों पर आधारित होगा तथा उनसे प्रेरणा प्राप्त करेगा, जिससे कि हम इस देश में सचमुच एक लौकिक राज्य बना सकेंगे, ऐसा राज्य जो महात्मा गांधी के आदर्शों पर आधारित हो। 

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