अनाथों के नाथ
देश में कोरोना संकट का कहर भयावह है। मानवीय स्तर पर भी और आर्थिक स्तर पर भी। कहीं बच्चे अनाथ हो गये हैं तो कहीं परिवार का कमाऊ व्यक्ति असमय काल-कवलित हो गया है। एक बड़ा मानवीय संकट है, जिसको लेकर सत्ताधीशों से संवेदनशील व्यवहार की दरकार है। विडंबना यह है कि राज्य सरकारों द्वारा कोरोना के वास्तविक आंकड़ों से खिलवाड़ किया जा रहा है।
सही आंकड़ों से अकर्मण्यता की पोल खुलती है। देशी-विदेशी एजेंसियां कह रही हैं कि मरने वालों और दर्ज आंकड़ों में फर्क है। राज्यों के विभिन्न दूर-दराज के इलाकों से उपचार के लिये आने वाले मरीजों को महानगरों के मृतकों के आंकड़ों में दर्ज नहीं किया जाता।
हाल ये है कि प्रधानमंत्री तक को कहना पड़ा है कि राज्य सच्चाई के साथ आंकड़े सामने रखें। बहरहाल, इस निर्मम समय में दो मुख्यमंत्रियों के उम्मीद जगाने वाले बयान सामने आये। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि कोविड महामारी में माता-पिता की मौत के बाद अनाथ हो गये बच्चों को हर माह पांच हजार रुपये की पेंशन दी जायेगी।
सरकार ऐसे बच्चों की मुफ्त शिक्षा व मुफ्त राशन की व्यवस्था भी करेगी। वहीं केजरीवाल सरकार ने भी अनाथ हुए बच्चों की शिक्षा व जीवन-यापन का खर्चा उठाने की घोषणा की है। निस्संदेह ऐसे बच्चों को सामने लाना समाज व सरकारों की जिम्मेदारी भी है।
उम्मीद है कि सरकारें ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाएंगी। साथ ही सही आंकड़े सामने आयें। हालांकि, अभी कोरोना की दूसरी लहर का कहर जारी है और सही संख्या का पता महामारी के खात्मे के बाद ही चल पायेगा।
फिलहाल तो सरकारों का ध्यान लोगों की जान बचाने पर होना चाहिए। सिर्फ बच्चे ही नहीं, ऐसे परिवारों की संख्या भी कम नहीं होगी, जिनके परिवार का कमाऊ सदस्य चला गया। ऐसी स्थिति बुजुर्गों के बेटे-बेटियों की भी हो सकती है। उन्हें भी सहायता कार्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।
कोरोना संकट से तहस-नहस हुई अर्थव्यवस्था ने लाखों लोगों के रोजगार छीन लिये, उनके बारे में भी सोचा जाना चाहिए। उन्हें जीवन-यापन के लिये अवसर कैसे दिया जा सकता है। केंद्र सरकार को भी इसमें सहयोग करना चाहिए क्योंकि राज्यों की अर्थव्यवस्था पहले ही कोविड संकट में चरमरा गई है।
इसके लिये जहां सत्ताधीशों में इच्छाशक्ति की जरूरत है, वहीं प्रशासन के स्तर पर भी कोशिश हो कि सहायता की बंदरबांट न हो। पात्र लोगों को ही इसका लाभ मिले। ये घोषणाएं सिर्फ राजनीतिक लाभ उठाने और सस्ती लोकप्रियता पाने का हथकंडा बनकर न रह जाएं। अब ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी कहर बरपा रही है तो वहां भी मुसीबत के मारों की सुध ली जाये।
कल्याणकारी योजनाओं की सार्थकता उनके पारदर्शी क्रियान्वयन में ही है। बेहतर होगा कि केंद्रीय स्तर पर ऐसी योजनाएं बनें और राज्यों के साथ बेहतर तालमेल के साथ उनका क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाये। हालांकि, इस संकट का सबसे बड़ा सबक यही है कि हमारा तंत्र हर मोर्चे पर विफल रहा है।