ममता के सामने नई चुनौतियां

आखिरकार ममता बनर्जी ने तीसरी बार पश्चिम बंगाल की बागडोर थाम ही ली। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही उन्होंने कोरोना संकट को प्राथमिकता मानते हुए लॉकडाउन जैसी पाबंदियों की घोषणा कर दी है।

ममता ने ऐसे समय पर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है जब राज्य में व्यापक हिंसा सामने आई; जिसको लेकर भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के लोगों द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं पर हमला करने का आरोप लगाया, जिसको लेकर पीएमओ से लेकर गृहमंत्रालय तक हरकत में आया। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा स्वयं पीड़ितों से जाकर मिले हैं।

राज्यपाल ने भी शपथ ग्रहण के बाद मुख्यमंत्री के सामने कानून व्यवस्था को प्राथमिकता देने की नसीहत दी है। दरअसल, पश्चिम बंगाल में चुनाव के पहले और बाद में राजनीतिक हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। यूं तो राजनीतिक हिंसा चुनाव से पहले होती रही है, लेकिन इस बार उसके बाद हुई है। जाहिर है हिंसा मतदान की दिशा को प्रभावित करने की कोशिश में की जाती रही है।

दरअसल, इस बार केंद्र ने समय रहते केंद्रीय सुरक्षा बलों को पश्चिम बंगाल में तैनात कर दिया था, जिसके चलते चुनाव से पहले और दौरान तो हिंसा नहीं हो पायी लेकिन अब चुनाव परिणाम आने के बाद सबक सिखाने के मकसद से विपक्षी भाजपा के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया जा रहा है।

हालांकि, सोमवार को ममता बनर्जी ने टीएमसी समर्थकों से हिंसा रोकने की अपील तो की लेकिन साथ इसके लिये भाजपा को जिम्मेदार बता दिया। कोरोना संकट के दौरान इस तरह के आरोप-प्रत्यारोपों से बचने की जरूरत है। इसे रोकने की दोतरफा पहल करने की जरूरत है। दोनों दलों को मिलकर अपने कार्यकर्ताओं से संयम बरतने और हिंसा का सहारा न लेने को बाध्य करना चाहिए।

साथ ही समर्थकों में स्पष्ट संदेश भी जाना चाहिए कि यदि किसी ने लक्ष्मण रेखा लांघने की कोशिश की तो कानून अपना काम करेगा। दरअसल, ऐसे हमले करने वालों को राजनीतिक संरक्षण मिलने से ही समस्या विकट होती है। जैसा कि ममता बनर्जी कह रही हैं कि पश्चिम बंगाल एकता का राज्य है, तो वह एकता राजनीतिक व्यवहार में नजर आनी चाहिए।

ऐसी स्थिति में जब पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिदृश्य साफ हो गया है और ममता बनर्जी ने शपथ भी ले ली है, इस तरह की अप्रिय घटनाओं को रोकने के लिये सख्त कदम उठाये जाने की जरूरत है।

दो दर्जन से अधिक लोगों की हत्या के बाद प्रधानमंत्री ने भी राज्य की बिगड़ती कानून व्यवस्था के बाबत राज्यपाल जगदीप धनखड़ से नाराजगी जतायी है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी हिंसा पर रिपोर्ट मांगी है। अजीब बात है कि देश के तीन अन्य राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में हाल में चुनाव हुए लेकिन कहीं से बड़ी हिंसा की कोई खबर नहीं आयी।

जाहिर है पश्चिम बंगाल की धरती पर स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराओं के विकास में राजनीतिक दल चूके हैं। जाहिर बात है कि यदि किसी राज्य में चुनाव के दौरान हिंसा होती है तो स्वतंत्र मतदान को प्रभावित करने का प्रयास बलपूर्वक किया जाता है। अपने आकाओं के पक्ष में मतदान करने के लिये मतदाताओं को डराने धमकाने का प्रयास किया जाता है।

चुनाव के बाद की हिंसा भी यही बताती है कि लोगों ने उनकी इच्छा के अनुसार मतदान नहीं किया। यूं तो यही हिंसा कांग्रेस के शासनकाल में होती थी, फिर वही स्थिति वामदलों की सरकार के दौरान देखने को मिली। तब ममता वाम दलों की सरकार पर हिंसा फैलाने का आरोप लगाती थी। अब ऐसे ही आरोप उनकी पार्टी पर लग रहे हैं।

राजनीतिक दल बदले हैं लेकिन राजनीति का चरित्र वही रहा। यदि राजनीतिक दल ईमानदारी और सख्ती से ऐसी हिंसा को रोकने का प्रयास करें तो कोई वजह नहीं है कि ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश न लग सके।

निस्संदेह कानून व्यवस्था बनाने की पहली जिम्मेदारी सरकार की है, लेकिन इसमें राजनीतिक दलों का सहयोग भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ममता सरकार के शासन की कुशलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह कितनी जल्दी ऐसी राजनीतिक हिंसा पर रोक लगाती हैं। उन्हें याद रहे कि उनकी पहली लड़ाई कोरोना से है।

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