किसानों के लिए मायने

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने 2021.22 का आम बजट निश्चित ही कठिन परिस्थितियों में प्रस्तुत कियाए परन्तु ये परिस्थितियां उन किसानों के संघर्ष से अधिक विकट नहीं हैं जो पिछले सवा दो महीने से दिल्ली की सड़कों पर तीन सरकारी कानूनों का विरोध कर रहे हैं।

इस बजट में कृषि क्षेत्र के लिए क्या प्रावधान हैं और उन किसानों के लिए इस बजट के क्या मायने हैं जो सरकारी नीतियों का विरोध करते हुए सड़कों पर हैंघ् वित्तमंत्री ने अपने भाषण में उन किसानों या उनके विरोध प्रदर्शनों का उल्लेख भी नहीं किया।

वहीं दूसरी ओर उनका प्रमुख प्रयास अपनी सरकार की इस उपलब्धि को गिनाने में रहा कि किस प्रकार पिछले छरू वर्षों में विभिन फसलों के खरीद.मूल्य में बढ़ोतरी हुई है और खरीद बढ़ी भी है खास तौर पर उन्होंने गेहूं और कपास का उल्लेख किया।

वैसे तो बजट में उन सभी सरकारी नीतियों पर ध्यान था जो मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में कृषि क्षेत्र में आरम्भ की हैंए परन्तु इनके साथ कुछ नई नीतियों पर भी ध्यान दिया गया।  इसी प्रकार  फसल बीमा योजनाश् में पिछले वर्ष जहां 12ए639 करोड़ रुपयों का प्रावधान थाए वहीं अब इसे बढ़ाकर 16ए000 करोड़ रुपए कर दिया गया है।

इसी प्रकार एक और योजनाए श्किसान उत्पादन संगठनश् या श्एफपीओश् पर भाजपा सरकार का अत्यधिक बल रहा है। इस योजना के तहत देश भर में 10-000 फपीओश् बनाने का लक्ष्य रखा गया है। पिछले वर्ष जहां इसके लिए 208 रोड़ रुपये का प्रावधान थाए इस वर्ष इसे बढ़ाकर 900 करोड़ रुपये कर दिया गया है।

अगर अलग.अलग योजनाओं को देखें तो वित्तमंत्री अपने प्रत्येक बजट में कृषि सम्बंधित कोई.न.कोई नई घोषणा करती आई हैं। सर्वप्रथम इसमें श्प्राकृतिकश् या जैविक कृषि की बात 2015 में की गई थीए परन्तु अब धीरे.धीरे इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।

इसी प्रकार श्सॉइल हेल्थ कार्डश् की नीति को भी काफी जोर.शोर से लागू किया गया था। श्एफपीओश् की नई योजना भी इसी प्रकार अत्यंत आकर्षक रूप में लांच की गई थीए परन्तु इन सब घोषणाओं और इनके वास्तविक क्रियान्वयन में जमीन.आसमान का अंतर है।

ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी बजट घोषणाएं एक बार वाह.वाही बटोरने के लिए की जाती हैं और धीरे.धीरे किसी और नई नीति को आरोपित करने हेतु उन्हें पीछे छोड़ दिया जाता है। ऐसे में बजटए बजाय एक व्यावहारिक नीतिगत दस्तावेज केए आर्थिक समीक्षा का एक लेखा.जोखा भर बनकर रह जाता है। वित्तमंत्री द्वारा प्रस्तुत बजट की भी शायद यही स्थिति है।

बजट के ही एक दूसरे स्लोगन श्मिनिमम गवर्नमेंटए मैक्सिमम गवर्नेंसश् अर्थात श्न्यूनतम सरकारए अधिकतम प्रशासनश् के बिना भी अधिकतम शासन को इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।

यद्यपि ये स्लोगन बजट.भाषण के अंत में हैए परन्तु अगर वास्तविक नीतिगत क्रियान्वयन की बात करें तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बजट और अन्य सभी घोषणाओं पर यही स्लोगन भारी है।

कम सरकार के साथ अधिकतम शासन केवल तभी संभव है जब बाजारू शक्तियों के हाथों में नीतियों और शासन की बागडोर सौंप दी जाएए भले ही उसके परिणाम कितने भी घातक क्यों न हों। अभी तक की अधिकांश सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन इसी को दिखाता है।

मिसाल के तौर परए मार्च 2020 में हमने अरुणाचल प्रदेश में  नीति पर एक अध्ययन किया था। अरुणाचल प्रदेश के पासी घाट शहर मेंए ;जिसे ईस्ट.सियांग जिला कहते हैंद्ध हमने कृषि विभाग के अधिकारियों और कुछ ऐसे किसानों से बातचीत की जो इस योजना से जुड़े हुए थे।

केंद्र सरकार पूर्वोत्तर के राज्यों में श्आर्गेनिक फार्मिंगश् को लेकर काफी उत्साहित है और इसी कड़ी में पूर्वोत्तरए विशेष तौर पर अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में श्एफपीओश् योजना को प्रोत्साहित करना चाहती है। इस अध्ययन के दौरान हमने पाया कि इस पूरे जिले में केवल कुछ ही किसान श्एफपीओश् के बारे में जानते हैं।

वह भी केवल बड़े किसान हैं जो बड़े पैमाने पर खेती करते हैं। श्एफपीओश् योजना का उद्देश्य किसानों को अपने उत्पादन का बेहतर दाम प्राप्त करनेए बाजार के अनुसार बेहतरीन प्रक्रिया अपनाने और जानकारी देने का काम करना है। इस हेतु सरकार ने कुछ कंपनियों को ये जिम्मा दिया है कि वे किसानों को इस बाबत ट्रेनिंग प्रदान करें।

कंपनियों को इस ट्रेनिंग का पेमेंट सम्बंधित राज्य का कृषि विभाग करता है। पासी घाट में ये जिम्मा गुजरात की एक कंपनी को दिया गया था जो कि सिक्किम में किसी प्रोजेक्ट में पहले से शामिल थी। हमें बातचीत के दौरान पता चला कि इस कंपनी ने अपनी ट्रेनिंग के दौरान किसानों को मक्का के एक ऐसे बीज के इस्तेमाल की सलाह दी जिसे वे उत्तर भारत से लाये थे।

उनका कहना था कि मक्का के इस बीज का उत्पादन बाजार में बेचने हेतु अधिक उपयुक्त है। वहीं पासी घाट के किसानों का कहना था कि हमारा स्थानीय बीज कहीं अच्छी पैदावार देता है और उसका उत्पादन भी अधिक है। परन्तु ट्रेनिंग कंपनी लगातार उत्तर भारत के बीज को खरीदने का दबाव किसानों पर बनाए हुए थी।

इस सब में स्थानीय प्रशासन का कहना था कि श्एफपीओश् के नाम पर स्थानीय कृषि को लगातार दबाने का प्रयास हो रहा है। चूंकि इसके लिए पैसा केंद्र सरकार से आता हैए इसलिए राज्य सरकार इसे गंभीरता से नहीं ले रही। दूसरी ओरए वास्तव में इसका प्रमुख उद्देश्यए ट्रेनिंग के नाम पर कुछ कंपनियों को प्रोत्साहित करना है। ऐसी कंपनियों को स्थानीय परिस्थितियों की कोई जानकारी नहीं होती।

ये एक उदाहरण मात्र है कि किस प्रकार बजट की घोषणाओं और जमीन पर शासन की वास्तविकताओं में कितना अंतर है। कमोबेश यही स्थिति श्प्रधानमंत्री फसल बीमा योजनाश् की भी हैए परन्तु सरकार इन तथ्यों को मानने को तैयार नहीं है। श्एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फण्डश् में भी इसी प्रकार श्पीपीपीश् ;पब्लिक.प्राइवेट प्रोजेक्टद्ध मॉडल की बात की गई हैए परन्तु धीरे.धीरे इस मॉडल के कॉर्पोरेट के पक्ष में तब्दील होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

दिल्ली की सीमाओं पर हो रहे किसान आंदोलन के पीछे भी यही सच्चाई है। किसान लगातार आरोप लगा रहे हैं कि नए कानूनों की घोषणा से पहले ही कुछ कॉर्पोरेट कंपनियों ने अपने वेयरहाउस बना लिए थेए नए कानूनों से लाभ उठाने की पूरी तैयारी कुछ कंपनियों ने कर ली थी। सरकार के इसी दोहरे रवैये ने किसानों में सरकार की वास्तविक मंशाओं को लेकर शंकाएं पैदा कर दी हैं जिसे दूर करने में सरकार नाकाम रही है।

कहने को तो कृषि क्षेत्र के विकास के लिए पेट्रोलए डीजल पर नया सेस लगा दिया गया हैए परन्तु इसका वास्तविक लाभ किसानों को मिलेगा ये कहना कठिन है। ऐसे में आवश्यक है कि सरकार बजट को एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल न करे। सरकार को चाहिए कि वह श्अधिकतम जनताए अधिकतम वास्तविक शासनश् के स्लोगन पर काम करे।

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