ज्ञानोपासना की अदम्य प्रेरणा

जिज्ञासा मनुष्य का प्रधान धर्म है। वह उसकी एक अदम्य प्रेरणा है। मनुष्य सब कुछ जानना चाहता है। बाह्म जगत और अंतर जगत्ए दोनों उसकी जिज्ञासा के विषय हैं। कस्मिन् नु भगवो विज्ञाते सर्वम् इद विज्ञातम् भवति।
जिज्ञासा मनुष्य का प्रधान धर्म है। वह उसकी एक अदम्य प्रेरणा है। मनुष्य सब कुछ जानना चाहता है। बाह्म जगत और अंतर जगत्ए दोनों उसकी जिज्ञासा के विषय हैं।
एक ऋषि से पूछा गयाए ज्ञान की उपासना कब तक करोगेघ् तुम्हारे बाल सफेद हो गए। शरीर की चमड़ी पर झुर्रियां आ गई है। कमर झुक गई। सिर में कंप आ गया है। दांत कब के चले गए। आंखों का तेज भी क्षीण हो गया। उसने कहा जब तक जीवित हूंए वेद पढ़ता रहूंगा। मेरी ज्ञान की उपासना चलती ही रहेंगी।
तो क्या जीवन के अनेक रसों का अनुभव अगले जन्मों में करोगेघ्
ज्ञान की खोज करना यह जीवन का सबसे बड़ा रस.रसतम है। जितने जन्म मुझे मिलेंगेए ज्ञान की खोज में ही व्यतीत करूंगा।
भगवान तुम्हारा भला करे। लेकिन समझ लो कि ज्ञान अनंत है। अनंतारू वेदारू।
इस तरह अनंत ज्ञान की खोज करते.करते मनुष्य ने सोचा कि इस खोज का अंत.पार नहीं है। लेकिन ज्ञान की प्राप्ति तो होनी ही चाहिए। ऐसी कुछेक चीज होनी चाहिएए जिसके जानने से सब कुछ जाना जा सकता है। अगर सुवर्ण का रहस्य समझ में आ गया तो सुवर्ण से बननेवाले अब अलंकारों को रहस्य पाया जा सकता है। नगाड़े से तो तरह.तरह की आवाजें निकलती हैए उन सबको पकडऩा नामुमकिन है। नागड़े  को  ही पकडऩे से सब आवाजें पकड़ में आ जाती हैं या बजने वाले शंख या वीणा को पकडऩे से। उसी तरह किसी मध्यरथ या किसी मूल चीज को पकडऩे से सारे विस्तार को हम समझ सकते हैं। मन समझ लिया तो सब संकल्पों का ज्ञान हो गया। हृदय का रहस्य पाने पर सर्व विद्या.कला का रहस्य पाया जाता है।
इस निश्चय पर आने के बाद हमारे ऋर्षियों ने सारे विश्व के रहस्य को ढूंढऩा चाहा और वे आत्मा परमात्मा को पा सके। पिण्ड.ब्रह्मांड न्याय पर हमारे लोगों का विश्वास इतना दृढ़ हो गया कि पुराणकार कहने लगे कि जब अपने दूतों को और चोरों को चोर को ढूंढऩे के लिए चारों दिशा में भेजकर राजा असफल हुआ तब उसने एकांत में बैठकर उसी चोर पर ध्यान लगाया। ब्रह्मांड में अगर चोर कहीं है तो मुझे अपने पिण्ड में उसका पता मिलना ही चाहिए। ऐसे ध्यान से राजा को चोर का पता मिल गया और वह उसे पकड़ सका।
गृहस्थाश्रमी शौनक और ब्रह्मविद् अंगिराए ब्रह्मावादिनी मैत्रेयी और योगीश्वर याज्ञवल्क्यए इसी की खोज में पड़े थे कि किस चीज को जानने से सारे विश्व का रहस्य हाथ आ जाएगाए समझ में आ जाएगा। ब्रह्मांड का रहस्य पाने के प्रयत्न में ऋषियों ने परा और अपरा विद्या पायी अैर उनका जीवन धन्य हो गया।
जिज्ञासा इतनी अदम्य क्यों होती हैघ् और ज्ञान.प्राप्ति में इतना आनन्द क्यों मिलता हैघ् ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसके उपयोग से हम तरह.तरह के लाभ उठा सकते हैं सही। ज्ञान के द्वारा हमारा सामथ्र्य बढ़ता हैए यह तो विश्वजनीन अनुभव है। सामथ्र्य प्रदान करने वाले सबसे प्रधान वस्तु है तपस्या। तपस्या के द्वारा सब पाप और सब कमजोरियां नष्ट हो जाती है। क्षीणता का अंत हो जाता है। तपस्या के द्वारा शुद्धिए शक्ति और समृद्धि प्राप्त होती है। तपस्या ही पौरुष हैए पराक्रमए प्रभुत्व है। ज्ञान सचमुच एक तपस्या ही है। बहवो ज्ञानतपसा पूतारू मद्भावम् आश्रितारू। तस्य ज्ञानमयं तपरू।
लेकिन जिज्ञासा की अदम्य प्ररणा विश्वात्मैक्य की साधना में उसे उत्पन्न होती है। जिस चीज का ज्ञान हुआए उसके साथ हमारा ऐक्य स्थापित हो ही जाता हैए यहां तक कि अगर हम किसी पापी को यथार्थरूप में पहचाने और उसके पाप का स्वरूप समझ लें तो उसके प्रति घृणा और तिरस्कार कम होते हैं और कुछ.न.कुछ सहानुभूति की उत्पत्ति होती है। यह सहानुभूति की पापी के उद्वार का रास्ता बताती है और पापी के उद्वार के लिए जो प्रयत्न किया जाता है और प्रसंगवश आत्म.बलिदान भी दिया जाता हैए उसमें प्रेरक शाक्ति विश्वात्मैक्य ही है और उस बलिदान की फलश्रुति या अंतिम लाभ भी अद्वैतानंद है।
ज्ञानोपासना की अदम्य पे्ररणा मनुष्य को आत्म.बलिदान तकए जीवन.समर्पण तक ले जाती है.यह करामात भी अद्वैतानंद की ही है। उस बलिदान का थोड़ा.सा मनन करते ही हम उसमें विश्वात्मैक्य ही पाते हैं।

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