बगावती सुर

राजस्थान के बदलते घटनाक्रम ने कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा रखी हैं। ऐसा लगता है कि पार्टी हर कुछ वक्त के बाद एक नई चुनौती से घिर जाती है और उसके लिए असहज स्थिति पैदा हो जाती है। काफी विचार-विमर्श के बाद कांग्रेस हाईकमान ने एक ऐसी रणनीति बनाई थी, जिससे लग रहा था कि पार्टी की अंदरूनी राजनीति में अब ठहराव आ जाएगा और 2024 के चुनाव तक उसकी स्थिति कुछ बेहतर हो जाएगी।

इसी रणनीति के तहत राहुल गांधी ने खुद को कांग्रेस अध्यक्ष पद से दूर कर लिया था और ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की राह पकड़ ली थी। माना यह गया था कि सत्तारूढ़ भाजपा गठबंधन वाली सरकार के खिलाफ यदि देश में माहौल बनता है, तो बतौर विकल्प लोग कांग्रेस को चुनेंगे।

इसी क्रम में राजस्थान की अंदरूनी उठापटक का हल निकालने के लिए बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम आगे बढ़ाया गया था, और उनकी जगह पार्टी हाईकमान ने युवा नेता सचिन पायलट को राज्य की कमान देने की रणनीति बनाई थी। पायलट न सिर्फ 2014 से 2018 तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं, बल्कि साल 2018 के राज्य विधानसभा चुनाव में उन्होंने खासा मेहनत भी की थी।

हां, यह अलग बात है कि विधानसभा चुनाव के बाद जब मुख्यमंत्री के चयन का वक्त आया, तो अंदरूनी राजनीति के बाद अशोक गहलोत के सिर ताज सजा। विरोधस्वरूप सचिन पायलट ने बगावती सुर भी अपनाए थे। राजस्थान में चेहरा बदलने के पीछे कांग्रेस की एक अन्य राजनीतिक सोच भी है।

उसका यह मानना है कि नवंबर-दिसंबर, 2023 में जब राज्य विधानसभा के चुनाव होंगे, तब अशोक गहलोत के नेतृत्व में पार्टी शायद ही फिर से सत्ता तक पहुंच पाए। नतीजतन, उनको पार्टी और सचिन पायलट को राज्य की बागडोर सौंपना बेहतर होगा। मगर बाद में जो हुआ, वह पार्टी के लिए बहुत चौंका देने वाला घटनाक्रम है।

अशोक गहलोत के पार्टी अध्यक्ष बनने की मंशा के बावजूद हमने यही देखा कि कांग्रेस विधायक दल की बैठक तक नहीं हो सकी। यह कांग्रेस के इतिहास में एक अटपटी घटना है। यहां तक कि पिछले साल जब पंजाब में राजनीतिक उठापटक शुरू हुई और तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को कुरसी से बेदखल किया गया था, तब भी विधायकों की बैठक हुई थी, जबकि यह भी तय था कि अमरिंदर सिंह को अशोक गहलोत की तरह कोई दूसरा पद नहीं मिलने वाला।

स्पष्ट है, ताजा घटनाक्रम से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का इकबाल पूरी तरह से बिखर गया है। उसकी यह योजना भी अधर में लटक गई है कि राज्य की सत्ता एक नौजवान नेता को सौंपकर फिर से चुनाव जीतने की तरफ कदम बढ़ाया जाए।


अब नजर इसी बात पर है कि क्या अशोक गहलोत कांग्रेस हाईकमान की उम्मीद पर खरा उतरते हुए राजस्थान की राजनीति से अलग होने और उत्तराधिकार चयन में अपना दखल न देने को तैयार हो पाएंगे? इसके लिए काफी कम समय बचा है, लेकिन जिस तरह से वरिष्ठ नेता मार्गरेट अल्वा ने वरिष्ठ नेताओं को अपने आचरण में सुधार लाने को लेकर तल्ख टिप्पणी की है, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस हाईकमान अशोक गहलोत से क्षुब्ध है।


यह पूरा घटनाक्रम कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में नैतिक साहस की कमी की ओर भी इशारा करता है, जिसकी वजह पार्टी की चुनावी हार है। अगर यही घटना इंदिरा गांधी या राजीव गांधी के दौर में होती, तो वे चाहे सत्ता में होते या नहीं, मगर हाईकमान के इकबाल के लिए तत्काल सख्त फैसला लेते। मुमकिन है कि कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष व मुख्यमंत्री को पहले ही कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया होता।

मगर मौजूदा नेतृत्व को डर है कि कहीं वे बगावत पर न उतर जाएं। इस लिहाज से राजस्थान सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कार्यशैली का इम्तिहान भी है। मां-बेटे में संबंध तो काफी मधुर हैं, लेकिन दोनों की राजनीतिक कार्यशैली अलग-अलग है। सोनिया गांधी मान-मनुहार या सबको साथ लेकर चलने की हिमायती हैं, जबकि राहुल गांधी सख्त फैसले लेने में यकीन करते हैं। लिहाजा, ताजा घटनाक्रम कांगे्रस नेतृत्व के धैर्य की ही नहीं, उनके राजनीतिक कौशल की भी परीक्षा है।


कांगे्रस अध्यक्ष बनने के लिए पार्टी में कई नेता इच्छुक रहे हैं। पिछली सदी के सातवें दशक के बाद से ऐसे दो नेता (पीवी नरसिंह राव और सीताराम केसरी) इस मुकाम तक पहुंच चुके हैं, जो नेहरू-गांधी परिवार के नहीं थे। कांगे्रस अध्यक्ष एक गरिमा और उपलब्धि वाला पद है, जिसका मुख्य काम देश भर में फैले कार्यकर्ताओं को जोड़कर रखना है।

1885 में पार्टी के गठन के बाद से हजारों नेता अपने कौशल का लोहा मनवा चुके हैं, लेकिन अब तक महज 87 ही इस उपलब्धि को हासिल कर सके हैं। 88वें अध्यक्ष के तौर पर अशोक गहलोत का पलड़ा इसलिए भारी जान पड़ रहा था, क्योंकि शशि थरूर की तुलना में वह कांग्रेस हाईकमान की पसंद थे।

मगर अब उनकी स्थिति आगे कुआं, पीछे खाई जैसी हो सकती है। अब अगर पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में कोई अन्य नेता खड़ा हो जाता है, तो संभव है कि गहलोत को शशि थरूर से भी कम मत मिलें। और अगर वह सिर्फ मुख्यमंत्री बने रहना चाहें, तो नए अध्यक्ष के साथ मनमुटाव की सूरत में उनको या तो किनारे किया जा सकता है या पार्टी-बदर।

दिक्कत यह भी है कि विधायक दल की बैठक से पहले मंत्री शांति धारीवाल के घर पहुंचे गहलोत गुट के विधायकों ने भी एक सुर में कांग्रेस हाईकमान पर भरोसा जताया। ऐसे में, अशोक गहलोत शायद ही कांग्रेस हाईकमान की नजरों में गिरना पसंद करेंगे।

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