बेटिकट मुसाफिरी

हो सकता है, आप यह मानते हों कि आपका धर्म, आपकी जाति, आपकी भाषा, आपके रिति-रिवाज ही सर्वश्रेष्ठ हैं; आपको यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि दूसरे धर्म, दूसरी जातियां, दूसरे विचारों, दूसरी भाषाओं पर बुलडोजर चलाएं।

अगर ऊपर से आप अपने घर को देखेंगे, तो आपको हर चीज का आकार छोटा दिखेगा। आपका मुहल्ला, गांव-शहर, राज्य, देश…सब ओझल हो जाएंगे। आपकी किसी पहचान का कोई मूल्य नहीं बचेगा।

यह तो पृथ्वी पर भी होता है, चाहे हम ध्यान न दें। नदियां, पर्वत, भूखंड, वायुमंडल, समुद्र… ये मनुष्य की बनाई किसी पहचान की सीमा नहीं मानते।

मनुष्य के बनाए किसी धर्म को भी नहीं! सृष्टि के शाश्वस्त धर्म को समझने की कोशिश हर प्राचीन शास्त्रीय परंपरा ने की है। आधुनिक विज्ञान की कई धाराएं भी यह कर ही रही हैं। ज्ञान की हर विधा की सीमा है, चाहे वह पारंपरिक हो या आधुनिक। ब्रह्मांड असीम है।


पृथ्वी सीमित है। उसका दायरा तय है। जितना ऊपर जाते जाएंगे, वायुमंडल छंटता जाएगा। फिर पृथ्वी एक जलमग्न नीली गेंद-सी दिखेगी। यह पानी कहां से आया, ठीक से कोई नहीं कह सकता। इसका अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जल की हर बूंद तब से पृथ्वी पर है, जब से अंतरिक्ष से आते बर्फीले उल्कापिंड यहां से टकराए थे।

दूसरे ग्रहों-उपग्रहों से भी टकराए, किंतु वहां पानी बचा नहीं। कुछ देश अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों के जरिये अंतरिक्ष में पानी ढूंढ़ रहे हैं। जितनी मात्रा में तरल जल पृथ्वी पर है, उतना कहीं अन्य नहीं दिखा। इसी पानी पर हमारा जीवन टिका है।


शायद आपको यह आभास हो कि जिन नदियों का पानी निचोड़कर हम अपना ताबड़तोड़ विकास कर रहे हैं, उसे बनाने की शक्ति आज तक हमारे पास आ नहीं सकी है। कोई पाइपलाइन, कोई नहर पृथ्वी पर बाहर से पानी नहीं ला सकती।

जिस पानी को हम बोतलों और टैंकरों में भरकर बेचने लगे हैं, वह पानी दूसरे जीवों से छीनकर हमने लिया है। उसमें हमारा मल-मूत्र बहाकर स्वच्छ होने का अधिकार पृथ्वी ने हमें नहीं दिया है।

पानी लूटने की यह औद्योगिक व्यवस्था हमारी सहूलियत के लिए बनी है, जिसके लिए हो सकता है, हम कुछ मोल चुकाते भी हों। यदि इस पानी के बनने की कहानी हम जान लें, तो साफ हो जाएगा कि हम अपने जल स्रोतों का कबाड़ा कर रहे हैं। यह हमें घोर संकट में डाल देगा।


संकट तो आ चुका है। नदियों-तालाबों में सड़ांध है, भूजल का स्तर पाताल की ओर जा रहा है। पानी की किल्लत चारों तरफ है। फिर भी हम अपने तौर-तरीके बदल नहीं रहे।

विकास का यह बुलडोजर हमारे समय का सबसे बड़ा धर्म बन चुका है। राजनीति हमें बार-बार यह भरोसा दिलाती है कि आर्थिक विकास असीम है।

अगर उससे कुछ बरबादी होती भी है, तो हम विकास का रंग बदलकर ‘हरित’ बना देंगे, उसे ‘सतत’ भी कर देंगे। नाम बदलने की राजनीति इसीलिए इतनी चलती है। हमें लगता है कि किसी वस्तु का नाम बदलने से उसका स्वभाव बदल जाता है!


सत्य जब सामने हो, तब उसे नकारने की मनुष्य की क्षमता तो सही में असीमित है! हमें अपना झूठ दूसरों के सच से अधिक स्वीकार्य है। इसीलिए पुराने ज्ञानियों ने ‘कूप मडूंक’ का विचार रखा था। हम अपने-अपने कुओं को अपने-अपने चश्मे से देखते हैं और उसे ही संपूर्ण ब्रह्मांड मान बैठते हैं।


इसीलिए परमाणु बम की धमकी आजकल सुनने में आ रही है। सावधान! नाभिकीय अस्त्र यह नहीं देखेंगे कि किस भूखंड पर किस राष्ट्र का क्या दावा है। वे आंख पर पट्टी बांधकर बेहिसाब विनाश करेंगे।

1960 के दशक में पर्यावरण आंदोलन के उभरने का एक बड़ा कारण था परमाणु हथियारों का डर और अब तो हमारे सामने परमाणु युद्ध से भी बड़ा खतरा है : जलवायु परिवर्तन। कोयले और पेट्रोलियम को जलाकर जितना विकास पिछले दो सौ साल में हुआ है, उससे हवा में कार्बन-डायऑक्साइड बढ़ रही है।

इस गैस की मात्रा हमारे वायुमंडल में 0.04 प्रतिशत ही है, लेकिन इसमें गजब की ताकत है सूरज की गरमी को रोककर पृथ्वी का तापमान बढ़ाने की। जब-जब वायुमंडल में इसकी मात्रा बढ़ी है, तब-तब प्रलय आया है। जब यह एक बारीक संतुलन से नीचे आई है, तब हिमयुग आया है और पृथ्वी जम गई है।

विकास का कोयला और पेट्रोलियम जलाकर हम पृथ्वी के उस महीन संतुलन को बदल रहे हैं, जिस पर पूरा जीव-जगत टिका है। असर सामने है।

जिन 122 वर्षों के तापमान के आंकडे़ हमारे पास हैं, उनमें आज तक इतना गरम मार्च का महीना नहीं रहा। सृष्टि हमारे बनाए शास्त्र या नीति से नहीं चलती, न ही वह हमारी न्याय-व्यवस्था के अधीन है, पर हमारा अस्तित्व उसके बारीक संतुलन पर टिका है।
हमारा ग्रह एक अंतरिक्ष यान है, जो सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। इस पर रहने वाले जीव बेटिकट मुसाफिर हैं, क्योंकि हमारे जन्म के समय सृष्टि हमसे कोई प्रवेश शुल्क नहीं लेती।

जब विकास का घड़ा भर जाएगा और जीवन के संतुलन को ललकारने लगेगा, तब पृथ्वी को विक्षोभ होगा। यह उथल-पुथल तब तक चलेगी, जब तक एक नया संतुलन नहीं बैठेगा। उसमें हम होंगे या नहीं, यह कोई नहीं कह सकता! हमारे विकास के सभी बुलडोजर उसके सामने तिनके समान भी नहीं होंगे!


अगर हम अपने-अपने कुएं के बाहर झांककर नहीं देखेंगे, तो हमें उन्हीं के भीतर दबने से कोई रोक नहीं सकेगा। आज पृथ्वी दिवस पर इतना तो हम याद कर लें। फिर चाहे कल हम अपनी बेटिकट मुसाफिरी में अपने-अपने कुओं में फिर मगन हो जाएं!

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