श्रमिकों की सुध
लोकतंत्र में लोक कल्याणकारी सरकार होने का दावा करने वाली सरकारें कोरोना संकट के दौर में सबसे ज्यादा त्रस्त श्रमिकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ईमानदारी से करती नजर नहीं आई हैं। यही वजह है कि देश की शीर्ष अदालत को स्वत: संज्ञान लेते हुए और जनहित याचिकाओं के संदर्भ में सरकारों को उनके दायित्वों का बोध कराना पड़ता है।
सोमवार को शीर्ष अदालत ने कहा कि लॉकडाउन के चलते बेरोजगार हुए श्रमिकों को सूखा व पका खाना उपलब्ध कराना सरकारों का दायित्व है। साथ ही लॉकडाउन की वजह से फंसे श्रमिकों को उनके घर भेजने की व्यवस्था करने को भी कहा। इसके अलावा एक बार फिर कोर्ट ने श्रमिकों का डेटाबेस बनाने को कहा ताकि उन तक मदद पहुंचाने में कोई परेशानी न हो।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना संकट की दूसरी लहर के दौरान प्रवासी श्रमिकों के जीवनयापन से जुड़ी समस्याओं को गंभीरता से लेते हुए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा उठाये गये कदमों की जानकारी मांगी। कोर्ट ने न केवल दिल्ली-एनसीआर बल्कि शेष राज्यों में मजदूरों के लिये मुफ्त ड्राई राशन, सामुदायिक रसोई के बाबत जानकारी मांगी।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार, दिल्ली, यूपी और हरियाणा सरकारों से उन प्रवासी श्रमिकों को उनके गांव भेजने के लिये यातायात के साधन मुहैया कराने को कहा था, जिनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया था। कोर्ट की यह संवेदनशील पहल असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की बेरोजगारी के दौर में समस्याओं को कम करने की दिशा में की गई है।
कोर्ट ने कहा कि श्रमिकों को राज्य आत्मनिर्भर भारत योजना या अन्य योजना के तहत खाने का सामान उपलब्ध करायें। साथ ही सामुदायिक रसोई और अन्य योजनाओं का सूचना माध्यमों के जरिये प्रचार किया जाये ताकि जरूरतमंद इसका लाभ उठा सकें। दरअसल, देश में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की पुख्ता जानकारी नहीं है। वे या तो बड़ी संख्या में ठेकदारों के मातहत काम करते हैं या कम पढ़े-लिखे होने के कारण पंजीकरण की सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पाते।
दरअसल, एक वर्ष पूर्व कोरोना संकट की पहली लहर के दौरान केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने असंगठित क्षेत्रों के श्रमिकों को दर्ज करने के लिये एक राष्ट्रीय डेटाबेस बनाना शुरू किया था, जिसमें प्रवासी और निर्माण श्रमिक शामिल होंगे। आखिर जब तक डेटाबेस तैयार नहीं है तो केंद्र व राज्य सरकारों की कल्याणकारी योजना का लाभ श्रमिकों को देने का दावा किस आधार पर किया जाता है?
दरअसल, वर्ष 2018 में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के पंजीकरण के लिये राष्ट्रीय पोर्टल बनाने व इसे राज्यों को उपलब्ध कराने के निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने दिये थे, जिसके बाद ही डेटाबेस बनाने का काम शुरू हुआ था। कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस बाबत प्रगति पर दो सप्ताह में रिपोर्ट देने को कहा है।
निस्संदेह, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हितों की निगरानी के लिये एक कारगर तंत्र विकसित करने की जरूरत है ताकि कल्याणकारी योजनाओं का लाभ वाकई जरूरतमंदों तक पहुंच सके। साथ ही अपने गांव लौटने वाले श्रमिकों को उनके कौशल के अनुरूप काम मिल सके। वैसे इस दिशा में कई राज्यों ने पहल भी की है।
दिल्ली सरकार ने निर्माण श्रमिकों को नकद राशि के भुगतान की बात कही है। लेकिन स्वयंसेवी संगठन प्रवासी श्रमिकों, रिक्शा व रेहड़ी-पटरी वालों को भी ऐसे ही लाभ दिये जाने की वकालत करते रहे हैं। बिहार व उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में केंद्रीय श्रम मंत्रालय की ओर से बीस कंट्रोल रूम बनाये गये हैं, जो श्रमिकों की समस्या के निवारण में मदद करेंगे।
बिहार समेत कई राज्यों में घर लौटे श्रमिकों को मनरेगा के तहत रोजगार दिया जा रहा है। उत्तराखंड सरकार ने भी पंजीकृत श्रमिकों को पिछले साल की तरह नकद राशि व खाद्यान्न किट उपलब्ध कराने की बात कही है। वहीं योगी सरकार ने भी पिछले साल की तरह श्रमिकों के खातों में पैसा व मुफ्त राशन देने की बात कही है।
महाराष्ट्र की उद्धव सरकार ने भी कुछ वर्गों को नकद भुगतान देने की घोषणा की थी। लेकिन विभिन्न राज्यों में श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा का भरोसा न मिल पाने के कारण वे अपने गांवों की ओर लौट रहे हैं।