खेला
लंबे और आक्रामक चुनाव अभियान के बाद ममता सरकार को अभी पूरी तरह कामकाज संभालने का मौका भी नहीं मिला था कि तृणमूल कांग्रेस के दो मंत्रियों व दो वरिष्ठ नेताओं की सीबीआई द्वारा की गई गिरफ्तारी ने नये विवाद को जन्म दे दिया। ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल चुनाव की कड़वाहट को भुला नहीं पा रहे हैं।
इसका यह भी संकेत है कि आने वाले दिनों में टकराव लगातार चलते रहने वाला है। यानी कि पश्चिम बंगाल में राजनीति का खेला बदस्तूर जारी रहने वाला है। सवाल उठाए जा रहे हैं कि जब राज्य कोरोना की महामारी से जूझ रहा है तो इस राजनीतिक लड़ाई से किसका भला होने जा रहा है। जरूरत है कि इस संकट में राजनीति का पारा कम करके राज्य को कोरोना मुक्त करने में ऊर्जा लगायी जाये।
भाजपा को भी राजनीतिक संयम का परिचय देना चाहिए तो तृणमूल सरकार को भी जनसरोकारों की प्रतिबद्धता दर्शाते हुए बड़प्पन का परिचय देना चाहिए। लेकिन लगता है कि चुनाव परिणामों के बाद भी राज्य अभी राजनीतिक कटुता से मुक्त नहीं हुआ है।
चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा समर्थकों पर हुए हमलों को इसी राजनीतिक दुश्मनी की कड़ी के रूप में देखा गया था। बहरहाल, नारद स्टिंग मामले में टीएमसी के चार नेताओं की सीबीआई द्वारा यकायक हुई गिरफ्तारी ने पश्चिम बंगाल का राजनीतिक माहौल गरमा दिया है। इनमें से दो नेता फिरहाद हकीम और सुब्रत मुखर्जी तो बाकायदा ममता सरकार में मंत्री हैं।
न गिरफ्तारियों के बाद ममता बनर्जी एक बार फिर आक्रामक तेवरों में नजर आईं। उन्होंने सीबीआई दफ्तर में बाकायदा धरना दिया और अपनी गिरफ्तारी की भी मांग की। वहीं दूसरी ओर कोरोना संकट के बीच टीएमसी कार्यकर्ताओं का हुजूम निकल आया और विरोध प्रदर्शन करने लगा।
जाहिर-सी बात है कि लॉकडाउन के बीच कोरोना प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़नी ही थीं। फिर सीबीआई कोर्ट से अभियुक्तों को जमानत तो मिली, लेकिन बाद में हाईकोर्ट से इनकी जमानत पर स्थगन आदेश मिल गया। कालांतर में मंत्रियों को बीमार होने की बात कहकर अस्पताल में भर्ती किया गया।
दरअसल, नारद स्टिंग ऑपरेशन 2014 में प्रकाश में आया था, जिसमें कुछ नेता कैमरे में रिश्वत लेते नजर आये थे। कालांतर वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव से पहले मामला पब्लिक डोमेन में लाया गया था। लेकिन इस मामले में प्राथमिकी 2017 में दर्ज की गई।
फिर यह मुद्दा हालिया विधानसभा चुनाव में भी उछला, लेकिन इसका कोई प्रभाव चुनाव परिणामों पर नजर नहीं आया। ऐसे में गिरफ्तारियों की टाइमिंग को लेकर सवाल उठाये जा रहे हैं। यह भी कि विधानसभा अध्यक्ष की अनुमति के बिना राज्यपाल को मंत्रियों की गिरफ्तारी की अनुमति देनी चाहिए?
सवाल यह भी कि दो पूर्व तृणमूल नेता शुभेंदु अधिकारी व मुकुल रॉय भी इसी मामले में वंछित तो थे तो अब भाजपा में शामिल होने के बाद उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की गई। जाहिरा तौर पर इस प्रकरण में सीबीआई की छवि को भी आंच आई है कि वह केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रही है।
तो इस राजनीतिक खेला का एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आने वाले दिनों में राज्य में राजनीतिक टकराव यूं ही जारी रहेगा? यहां सवाल कोरोना संकट में राजनीतिक दलों की जनता के प्रति संवेदनशीलता का भी है। यानी उन्हें अपने दायित्वों का पालन भी करना चाहिए।
बहरहाल, विकास की दौड़ में पिछड़े पश्चिम बंगाल के सामने तमाम तरह की चुनौतियां विद्यमान हैं। अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है। उस पर कोरोना संकट लगातार विकराल रूप लेता जा रहा है। ऐसे में राजनेता यदि टकराव की राजनीति का सहारा लेंगे तो न तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में है और न ही राज्य के हित में।
निस्संदेह इससे राज्य के राजनेताओं की विश्वसनीयता भी दांव पर होगी। राजनीतिक दलों को चुनाव पूर्व की कटुता को त्याग कर राज्य के सर्वांगीण विकास के लिये रचनात्मक पहल करनी चाहिए। अब चुनावी राजनीति को पांच साल के लिये ठंडे बस्ते में डालकर सिर्फ राज्य के विकास की ही बात हो। यही देश व राज्य के हित में रहेगा।