टीके का समाजवाद

ऐसे वक्त में जब भारत समेत दुनिया के तमाम देश कोरोना महामारी की दूसरी-तीसरी लहर से जन-धन की व्यापक क्षति उठा रहे हैं, वैक्सीन को अंतिम सुरक्षा कवच के रूप में देखा जा रहा है। इसकी एक वजह यह भी है कि यदि टीकाकरण में देरी होती है तो बहुत संभव है कि वायरस नये वैरिएंट के रूप में कहर बरपाने लगे।

वैश्वीकरण के इस दौर में किसी एक देश की वायरस से होने वाली बुरी स्थिति पूरी दुनिया को प्रभावित कर सकती है। यही वजह है कि मानवता की रक्षा के लिये इस वायरस के खिलाफ साझी लड़ाई की जरूरत महसूस की जा रही है। विडंबना यह है कि दुनिया के देशों को महामारी ही नहीं मार रही है, गरीबी भी मार रही है।

साम्राज्यवादी ताकतों के उपनिवेशों से मुक्त हुए देशों को गरीबी विरासत में मिली है। यही वजह है कि दुनिया के तमाम देशों का संरचनात्मक ढांचा और वैज्ञानिक कौशल उस स्तर का नहीं है कि इस महामारी से जोरदार तरीके से लड़ा जाये।

यही वजह है कि दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन उत्पादक देश भारत अपनी वैक्सीन खोजने के बावजूद बड़ी आबादी को टीके का सुरक्षा कवच अभी तक नहीं दे पाया है। इस चुनौती के मद्देनजर बीते साल भारत ने अमेरिका व यूरोपीय यूनियन से मांग की थी कि कोरोना वैक्सीन को बौद्धिक संपदा कानून के दायरे से मुक्त किया जाये, जिससे गरीब देश भी वैक्सीन उत्पादन की दिशा में उन्मुख हो सकेंगे और दुनिया को तबाही के कगार पर ले जाने को आमादा कोविड-19 की महामारी को खत्म किया जा सके।

लेकिन तब अमेरिका तथा अन्य विकसित देशों ने भारत की तर्कपूर्ण बात को कान नहीं दिया था।

लेकिन अब भारत व दक्षिण अफ्रीका आदि की अपील पर अमेरिका ने कोविड वैक्सीन पर पेटेंट के दावे को अस्थायी रूप से वापस लेने का फैसला किया है। निस्संदेह इससे उन गरीब मुल्कों को फायदा होगा जो अपनी आबादी को सस्ता टीका उपलब्ध कराने की आकांक्षा रखते हैं।

निस्संदेह यदि ये कोशिशें सिरे चढ़ती हैं तो सस्ता और मुफ्त टीका चाहने वाले देशों को बड़ी राहत मिलेगी। साथ ही उन देशों को फायदा होगा जो अपने देश में टीका बनाना चाहते हैं।

हालांकि, अभी इस प्रक्रिया के सिरे चढ़ने से जुड़ी तमाम तरह की पेचीदगियां मौजूद हैं। अमेरिका की टीका उत्पादक कंपनियां तथा अनुदारवादी अमेरिकी बाइडेन प्रशासन को आंखें दिखा रहे हैं।

विडंबना यह है कि महामारी दुनिया के तमाम देशों को समान रूप से अपना शिकार बना रही है, लेकिन अब तक बनी कुल 83 प्रतिशत वैक्सीन केवल अमीर व मध्यम आय वाले देशों में लग चुकी है।

विसंगति देखिए कि महामारी से बचाव के लिये जहां अमेरिका अपनी 44 फीसदी आबादी को टीका लगा चुका है वहीं अफ्रीका में यह प्रतिशत एक ही है। अच्छी बात यह है कि अमेरिका के बाद यूरोपीय यूनियन ने भी इस मामले में सकारात्मक प्रतिसाद दिया है।

ऐसे वक्त में जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं चौपट हो रही हैं और स्वास्थ्य विशेषज्ञ लगातार वैक्सीनेशन पर जोर दे रहे हैं, इसमें अमीर मुल्कों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। हालांकि, इस फैसले को तार्किक परिणति तक पहुंचाने में वक्त लग सकता है लेकिन अच्छी शुरुआत को आधी सफलता माना जाता है।

अब बिना किसी कानूनी झंझट और मुकदमेबाजी के दुनिया की फार्मास्यूटिकल तथा वैक्सीन उत्पादक कंपनियां वैक्सीन बनाने के अभियान को अमलीजामा पहना सकेंगी।

अधिक व सस्ते टीकों से कोरोना महामारी को समय रहते जीता जा सकेगा। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि अमेरिका व यूरोपीय यूनियन के देश गरीब मुल्कों को वैक्सीन उत्पादन के लिये तकनीकी और कच्चे माल की सहायता किस सीमा तक करते हैं।

फिर भी यह अच्छी बात है कि दुनिया की महाशक्तियां इस घातक वायरस से मुकाबले के लिये राष्ट्रीय हितों से ऊपर उठकर मानवता के कल्याण की दिशा में अग्रसर हुई हैं। यह वक्त की मांग भी है कि हम इस संकट के खिलाफ साझा लड़ाई लड़ें।

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