समृद्धि का जोड़

सोमवार को विश्व जल दिवस सही मायनों में तब सार्थक हुआ जब देश नदी जोड़ो अभियान को मूर्त रूप देने की दिशा में आगे बढ़ गया। नदी जल प्रबंधन की दिशा में इस बदलावकारी सोच को संबल देने का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी को दिया जाता है।

उनकी संकल्पना को साकार करती राष्ट्रीय महत्व की केन-बेतवा नदियों को जोड़ने वाली परियोजना के समझौते के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वर्चुअल उपस्थिति में केंद्रीय जल शक्ति मंत्री, उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने हस्ताक्षर किये।

करार को ऐतिहासिक बताते हुए प्रधानमंत्री ने इस परियोजना को समूचे बुंदेलखंड के सुनहरी भविष्य की भाग्यरेखा बताया। निस्संदेह इस परियोजना के अस्तित्व में आने से जहां लाखों हेक्टेयर में सिंचाई हो सकेगी, वहीं प्यासे बुंदेलखंड की प्यास भी बुझेगी।

जहां प्रगति के द्वार खुलेंगे, वहीं क्षेत्र से लोगों का पलायन रुकेगा, जो आने वाली पीढ़ियों की दुश्वारियों का अंत करेगी। समाज व सरकार की सक्रिय भागीदारी योजना के क्रियान्वयन में तेजी लायेगी।

इस परियोजना से जहां दोनों राज्यों के अंतर्गत आने वाले बुंदेलखंड के 10.62 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई संभव होगी, वहीं 62 लाख घरों को पेयजल उपलब्ध कराया जा सकेगा। इसके अलावा मध्य प्रदेश के पन्ना जनपद में केन नदी पर एक बांध  भी बनाया जायेगा, जिससे करीब 221 किलोमीटर लिंक नहर भी निकाली जायेगी, जो झांसी के निकट बेतवा नदी को जल उपलब्ध करायेगी।

इस लिंक नहर के जरिये उन बांधों को भी पानी उपलब्ध कराया जा सकेगा, जो बरसात के बाद भी जल उपलब्ध करा सकेंगे।  दरअसल, यूपीए सरकार के दौरान 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश में समझौता हुआ था, लेकिन सत्ताधीशों की उदासीनता से योजना सिरे नहीं चढ़ सकी।

जल शक्ति मंत्रालय की कोशिश है कि जलवहन प्रणाली के माध्यम से मानसून अवधि में जल का संग्रहण करके गैर मानसून अवधि में पानी का उपयोग किया जा सके।

यह विडंबना ही है कि देश की आजादी के सात दशक बाद भी हम हर व्यक्ति तक पेयजल नहीं पहुंचा सके। विडंबना यह भी है कि राज्य सरकारों की प्राथमिकता में जल संसाधनों का संरक्षण व संवर्धन शामिल ही नहीं रहा है।

जीवन का यह आवश्यक अवयव कभी चुनावी एजेंडे का हिस्सा बन ही नहीं पाया। हम जल अपव्यय रोकने और कुशल जल प्रबंधन में कामयाब नहीं रहे हैं। यही वजह है कि देश में जल संग्रहण के परंपरागत स्रोत खात्मे की कगार पर हैं।

इन स्रोतों से जुड़ी भूमि पर माफिया द्वारा दशकों से कब्जा किया जा रहा है। तभी लगातार गिरते भू-जल स्तर के चलते वर्षा के जल के संरक्षण पर जोर दिया जा रहा है। विश्व जल दिवस पर प्रधानमंत्री द्वारा ‘कैच द रेन’ अभियान की घोषणा की गई।

संयुक्त राष्ट्र के संगठन व देश का नीति आयोग जल संकट के जिस खतरे से आगाह करते रहे हैं, यह अभियान उसी दिशा में कदम है। निस्संदेह इस अभियान का महज प्रतीकात्मक महत्व ही नहीं है, बल्कि यह हमारी जल संरक्षण की सार्थक पहल है।

कोशिश है कि भारत जैसे देश, जहां लंबे समय तक मानसून सक्रिय रहता है, में बारिश का पानी यूं ही बर्बाद न हो और बाढ़-सूखे की विभीषिका को टाला जा सके। केंद्र सरकार का ग्रामीण इलाकों में वर्ष 2024 तक हर घर तक नल का लक्ष्य इसी दिशा में बढ़े कदम का परिचायक है।

लगातार बढ़ते भूजल संकट के चलते इस तरह की अभिनव पहल महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री द्वारा मनरेगा के मद का सारा पैसा जल संरक्षण में खर्च करने की घोषणा एक महत्वपूर्ण कदम है।  इससे जहां मनरेगा की उत्पादकता में वृद्धि होगी, वहीं जल संरक्षण के लक्ष्य समय रहते हासिल हो सकेंगे।

इससे पानी के परंपरागत जल स्रोतों की सफाई व संरक्षण के काम में तेजी आयेगी। स्थानीय निकाय इसमें रचनात्मक भूमिका निभाकर लक्ष्यों को हासिल करने में मदद कर सकते हैं। निश्चय ही बेहतर जल प्रबंधन तथा पानी का अपव्यय रोक कर हम जलसंकट को दूर कर सकते हैं।

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