एक्सपर्ट ने बताया क्यों सर्दियां आते ही उत्तर भारत में बढ़ जाता प्रदूषण

दिल्लीः देश के अलग-अलग राज्यों में गेहूं और धान के बचे-खुचे अवशेषों को जलाने का चलन है। धान की पराली जलाने से निकलने वाला धुआं दिल्ली-एनसीआर समेत उत्तर भारत का दम घोंटता है। वहीं, गेहूं की पराली का धुआं खास परेशानी पैदा नहीं करता। विशेषज्ञ इसके पीछे मुख्य तौर पर मौसम के कारकों को कारण मानते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के आंकड़े बताते हैं कि देश के अलग-अलग राज्यों में मार्च, अप्रैल और मई में गेहूं की फसल की कटाई के बाद उसके अवशेष जला दिए जाते हैं। 

इस साल मार्च में गेहूं की पराली जलाने के बाद खेतों में लगाई गई आग की 9432 घटनाएं दर्ज की गईं। तो मई में 24 हजार 56 घटनाएं दर्ज की गईं, लेकिन गर्म मौसम, तेज हवा और हवा की दिशा अलग होने के चलते गेहूं की पराली के धुएं के चलते प्रदूषण के स्तर में बढ़ोतरी नहीं हुई। इसकी तुलना में पिछले साल नवंबर में धान की पराली जलाने की 90,635 घटनाएं दर्ज हुईं थीं। इसका असर दिल्ली-एनसीआर समेत पूरे उत्तर भारत पर देखने को मिला और लोगों को ज्यादातर समय प्रदूषण भरी हवा में सांस लेना पड़ा।

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यह कारण है

विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र में वायु गुणवत्ता विशेषज्ञ विवेक चट्टोपाध्याय बताते हैं कि गेहूं की कटाई के बाद उसके अवशेष जलाने का समय आमतौर पर मार्च, अप्रैल और मई महीने में होता है। इस समय हवा की रफ्तार तेज होती है। गर्म मौसम होने के चलते पर्यावरण में प्रदूषक कण तेजी से बिखर जाते हैं, जबकि हवा की दिशा भी अलग होती है। इसके चलते प्रदूषण के स्तर में खास बढ़ोतरी नहीं होती है। जबकि, नवंबर में ठंड का आगमन होने लगता है। हवा की रफ्तार कम हो जाती है और प्रदूषक कण धीमी गति से बिखरते हैं। इसके चलते प्रदूषण का सामना करना पड़ता है।

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