आंदोलन का यह हश्र कैसे हुआ
मंगलवारए यानी 26 जनवरी को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में जो कुछ हुआए उसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं थाए अगर कुछ अस्वाभाविक थाए तो वह भोलापन हैए जिसके तहत दिल्ली पुलिस ने यह मान लिया था कि किसानों के रूप में एकत्रित भीड़ अपने नेताओं का अनुशासन मानेगी और उनके वायदे के अनुसार निर्धारित रूट पर ही जुलूस निकालेगी। भीड़ वाले आंदोलनों का अब तक का यही इतिहास रहा है कि भीड़ कभी भी अनुशासित तरीके से अपने नेतृत्व की बातें नहीं मानती। इसीलिए राजधानी दिल्ली की सड़कों पर कल जो कुछ भी हुआए वह काफी हद तक प्रत्याशित था फिरए किसानों के 40 से अधिक संगठन इस आंदोलन में शरीक हैं।
इन सबका अलग.अलग एजेंडा रहा है और किसी एक फैसले पर उनका पहुंचना लगभग असंभव था। मैंने टीवी चैनलों पर दिन भर की गतिविधियां देखीं और एक बात तो बिना किसी हिचक के कह सकता हूं कि अराजकता की घटनाएं किसान नेतृत्व के साथ.साथ दिल्ली पुलिस के नेतृत्व की अक्षमता का भी बखान कर रही थीं। मुझे लगता है कि इस तरह का दयनीय प्रदर्शन दिल्ली पुलिस ने सिर्फ 1984 के सिख विरोधी दंगों में दिखाया था।
जहां से हिंसा की शुरुआत हुई और बाद में जहां.जहां अराजकता दिखीए कहीं भी एक पेशेवर पुलिस नेतृत्व के दर्शन नहीं हुए। शायद बहुत अधिक राजनीतिक हस्तक्षेप ने इस बल को इस लायक नहीं छोड़ा है कि वह कोई पेशेवर फैसला कर सके। सुप्रीम कोर्ट ने रैली निकालने या न निकालने की बात पुलिस के विवेक पर छोड़ दी थीए ऐसी स्थिति में उसके सामने सांप.छछूंदर जैसी स्थिति पैदा कर दी थी। यदि वह रैली की इजाजत न देतीए तो उसे अलोकतांत्रिक रवैया अपनाने का दोषी ठहराया जाता और इजाजत देते समय उसने जिनकी गारंटी लीए वे किसान नेता किसी भी नैतिक बल से रहित थे।
मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा कि किसानों की मांगें सही हैं या सरकार का रुख ठीक हैए लेकिन सच यही है कि दोनों पक्ष अड़ गए हैं और दोनों अपने.अपने रवैये को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। न सरकार इन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने को तैयार दिख रही हैए और न किसान इन कानूनों को रद्द किए बिना वापसी के लिए तैयार हैं।
यह ऐसा गतिरोध हैए जिसे खत्म करने के लिए बीच का सम्मानजनक रास्ता निकाला जाना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं हो सकाए और मंगलवार को जो कुछ हुआए उसने इस आंदोलन को बदनाम और कमजोर कर दिया। दिल्ली की तमाम सीमाओं को पार करते किसानों की जो तस्वीरें सामने आई हैंए वे यही बता रही हैं कि शुरू में पुलिस को जिस तरह की सख्ती बरतनी चाहिए थी और उनको नियंत्रित करना चाहिए थाए वैसा वह नहीं कर पाई। इसी वजह से बैरिकेड तोड़कर ट्रैक्टर शहर के अंदर आ गए।
निहंग घोड़ों पर हथियार लेकर खतरनाक ढंग से घूम रहे थे। उनको रोकने का प्रभावी तरीका पुलिस के पास नहीं था। पुलिसकर्मियों ने आंसू गैस के गोले भी छोडे़ए तो उसका बहुत असर पड़ता नहीं दिखा। संभवतरू पुलिस की यह सदिच्छा रही होगी कि कम से कम बल प्रयोग करके भीड़ को तितर.बितर किया जाए और नियम भंग करने वाले किसान वापस तय रास्तों पर लौट जाएं। दरअसलए यह स्थिति एक अक्षम पुलिस नेतृत्व के कारण ही बनी और इसका उल्लेख मैं ऊपर कर ही चुका हूं।
आजादी के आंदोलन की बात और थी। उसके बाद के तमाम आंदोलनों का अनुभव यही बताता है कि भीड़ नेतृत्व की बात सुनती नहीं है। असहयोग आंदोलन को याद कीजिए। जब यह आंदोलन अपने शीर्ष पर थाए तब महात्मा गांधी ने चौरीचौरा कांड के बाद इसे वापस ले लिया। आज ऐसा कोई नेतृत्व हमारे पास नहीं हैए जिसके पास गांधीजी जैसा नैतिक बल हो कि एक आह्वान पर वह आंदोलन वापस ले ले। कल की दिल्ली हिंसा का एक नुकसान और है। शायद ही राजधानी में अब कोई किसान नेताओं पर विश्वास करेगा।
हिंसा की इजाजत तो कोई भी सरकार नहीं दे सकती। आंदोलन के नेताओं को सम्मानजनक वापसी के लिए अब सोचना चाहिए। हालांकिए बडे़ आंदोलनों की एक बड़ी समस्या यह भी होती है कि आयोजक किसी सम्मानजनक वापसी का दरवाजा खुला नहीं रखते। पिछले साल शाहीन बाग आंदोलन में यही हुआ कि अपने चरम पर पहुंचकर आंदोलनकारियों को समझ ही नहीं आया कि वे वापसी कैसे करेंघ् अंततरू उन्हें भयानक निराशा हाथ लगी।
किसान आंदोलन में मजेदार बात यह हुई कि सरकार और किसान नेताओं के बीच 10 से अधिक दौर की बैठकें हुईंए हर बार जब लगता था कि कोई रास्ता निकल आएगाए तब किसी न किसी वजह से फैसला टल जाता। किसी के गले यह नहीं उतरा कि अगर सिर्फ यही कहना था कि बिना कृषि कानूनों के वापस लिए वे आंदोलन नहीं खत्म करेंगेए तो इसके लिए विज्ञान भवन जाने की जरूरत क्या थीघ् शायद नेतृत्व की बहुलता इसके पीछे बड़ा कारण था। बहरहाल 26 जनवरी 2021 का अनुभव इतना खराब रहा कि इसे दिल्ली पुलिसए केंद्र सरकार और किसान नेताए सभी भूल जाना चाहेंगे।