रैगांव उपचुनाव को लेकर मुश्किल में फंसी भाजपा

सतना। बुजुर्गों द्वारा कही जाने वाली कहावत लोहे को लोहा ही काट सकता है, रैगांव विधानसभा क्षेत्र में बिल्कुल सटीक बैठती है। रैगांव विधानसभा क्षेत्र बीते साढ़े तीन दशक से भाजपा या फिर बागरी परिवार का गढ़ रहा ै।

जिन्होंने जीत का ऐसा तिलस्म चढ़ा कि कांग्रेस यहां दूसरे नंबर के लिए भी संघर्ष करती रही। इसीमें कोई संदेह नहीं कि दिवंगत विधायक स्वर्गीय जुगुल किशोर बागरी ने इस सीट को भाजपा का अजेय किला बना दिया था लेकिन यह भी सच है कि जब-जब बागरी समाज से सशक्त प्रत्याशी उतरा तब-तब उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा।

याद कीजिए वर्ष 1990 का विधानसभा चुनाव जब उन्हीं के परिवार के धीरेंद्र सिंह धीरू ने जनता दल की टिकट पर चुनाव लड़कर हराया था। इसके बाद मुकाबले में बागरी समाज का प्रत्याशी नहीं था तो उन्होंने 1993, 1998, 2003 व 2008 का चुनाव जीता और इन चुनावों में कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही और बासपा ने दूसरा स्थान हासिल किया।

वर्ष 2013 के चुनाव में भाजपा ने गया बागरी को अपना प्रक्ष्त्याशी बनाया। इस चुनाव में भाजपा ने भी अपना प्रत्याशी बदला और जुगुल किशोर बागरी के बेटे पुष्पराज को टिकट दी। कांग्रेस द्वारा प्रत्याशी बनाए गए बागरी चुनाव तो नहीं जीत सके लेकिन उनकी मौजूदगी के कारण भाजपा को तत्कालीन बसपा प्रत्याशी ऊषा चौधरी के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा।

2018 में कांग्रेस ने कल्पना वर्मा को चुनाव मैदान में उतारा तो वे दूसरे नंबर पर आई लेकिन जुगुल के विजयी रथ को नहीं रोका जा सका।

अब उनके निधन के पश्चात रिक्त हुई रैगांव सीट के उपचुनाव में कांग्रेस जातिगत समीकरण साधकर किसे चुनाव लडऩे की जिम्मेदारी देती है, यह तो वक्त के गर्भ में हैं लेकिन रणनीतिकारों का मानना है कि पूर्व के चुनावी परिणामों से सबक लेकर जातिगत समीकरणों के जरिए कांग्रेस रैगांव की चुनावी वैतरणी पार कर सकती है।

उधर कांग्रेस के कई लड़ाके भाजपा को चुनौती देने के लिए तैयार हैं। यदि कांग्रेस पूर्व के चुनाव परिणामों पर आधारित जातिगत समीकरण को तवज्जों देकर बागरी समाज से कोई प्रत्याशी उतारती है तो कांग्रेस के सामने वाल्मीकि बागरी, गया बागरी, प्रभा जित्तू बागरी और मनोज बागरी है।

इनमें से गया बागरी और प्रागेंद्र बागरी पूर्व में चुनाव हार चुके हैं। प्रभा जित्तु बागरी ने फिलहाल कोई चुनाव नहीं लड़ा है, जबकि किसानों व समाज के बीच खासी पकड़ रखने वाले वाल्मीक बागरी निर्दलीय चुनाव लड़कर हार चुके हैं।

इसके अलावा ऊषा चौधरी और कल्पना वर्मा भी सशक्त दावेदार हैं जिन्होंने क्षेत्र में लगातार सक्रियता दिखाई है। इन नामों को लेकर फिलहाल कांग्रेस के रणनीतिकार माथा पच्ची करने में जुटे हुए हैं।

बीते दिनों भोपाल में पीसीसी अध्यक्ष कमलनाथ के दरबार में इन नामों पर मंथन भी हुआ लेकिन यह मंथन किसी नतीजे तक नहीं पहुंच सका है। अब यह देखना दिचलस्प होगा कि कांग्रेस के रणनीतिकार जातिगत समीकरण साधकर कोई नया चेरा उतारते हैं या फिर अजमाए हुए प्रत्याशियों पर ही दांव लगाते हैं।  

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