देवत्व का सम्मान

श्रीकृष्ण ने कहा है कि स्वप्न के साथ कर्म मिल जाएं, तो जल्दी फल प्रदान करने वाले होते हैं। इस मार्ग पर चलें, तो बार-बार उस सुखकारी दिव्यता का अनुभव अपने मन में कर सकेंगे। दिव्यता इसी संसार में व्याप्त है, लेकिन इसे देखने और पाने के लिए बच्चों की भांति अपने मन को स्मृतियों से मुक्त रखना होगा।
व्यता की पहचान अपने मन में ‘वाह’ की अनुभूति और विस्मय भर देती है। विस्मय की अनुभूति के प्रति आदर और सम्मान तभी उत्पन्न होता है, जब वह क्षणिक होता है। 
‘कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर भवति कर्मजा।।’  यानी
‘इस पृथ्वी लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं; क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है।’ श्रीकृष्ण पूजा करने के विभिन्न पहलुओं के बारे में बताते हैं। आप पेड़ों में, पक्षियों में, नदियों में, पहाड़ों में, सूर्य में, सितारों में, चंद्रमा में, लोगों में, सब जगह पर दिव्यता को देख सकते हैं।  किंतु आप उस दिव्यता की पहचान कहां करते हैं! आप कहां पर उसको अपना महसूस करते हैं! दिव्यता की पहचान अपने मन में ‘वाह’ की अनुभूति से होती है, जब मन आनंद और विस्मय से भर जाता है। विस्मय की अनुभूति के प्रति आदर और सम्मान तभी उत्पन्न होता है, जब वह क्षणिक होता है। सूर्योदय और सूर्यास्त विस्मयकारी लगते हैं, क्योंकि वह कुछ समय के लिए ही होते हैं। कुछ मिनटों के लिए, कुछ क्षणों के लिए आसमान में सुंदर रंग दिखाई देते हैं और आपके मुंह से ‘वाह’ निकल जाता है। वह कुछ क्षणों के लिए ही दिखाई देते हैं, यदि वे चौबीसों घंटे रहें, तो आपको उनकी आदत पड़ जाएगी और आप उनकी ओर ध्यान नहीं देंगे। तब आपके मुंह से ‘वाह’ भी नहीं निकलेगा। 
आपकी दिव्यता से पहचान भी इस ‘वाह’ की अनुमति से जुड़ी है, जब आप किसी दिव्य दृश्य को देखकर विस्मय से ‘वाह’ कह उठते हैं। यह वाह मन में तभी उत्पन्न होता है, जब आप एक निश्चित प्रक्रिया से अलग कुछ अनुभव करते हैं और जब कोई दूसरी प्रक्रिया आपके मन में दृढ़ नहीं होती। दोनों प्रक्रियाओं के बीच की प्रक्रिया ‘वाह’ की अनुभूति है और यही चमत्कार कहलाती है। यदि चमत्कार दैनिक प्रक्रिया बन जाएं, तो वे चमत्कार नहीं कहलाएंगे। यदि आप इस दुनिया को समझेंगे तो आपको लगेगा यह ब्रह्मांड चमत्कारों से भरा हुआ है, क्योंकि ये प्रतिदिन होते हैं। तो, यह आपके मन में ‘वाह’ की अनुभूति उत्पन्न नहीं करते। 
हमारे मन की स्मृति सृष्टि के चमत्कारों को पहचानने में रुकावट डालती है। बच्चों को हर वस्तु में चमत्कार दिखाई देता है। बच्चे हमेशा विस्मयकारी दुनिया में रहते हैं, विस्मय की स्थिति में, वाह के भाव में। दिव्यता आपके भीतर वह विस्मय उत्पन्न करती है। विभिन्न रूपों में दिव्यता का सम्मान किसी विशेष कारण से किया जाता है। दिव्यता के किसी विशेष स्वरूप का विशेष कारण से पूजन किया जाता है। किसी निश्चित परिणाम की प्राप्ति के लिए। यहां तक कि चर्च में विशेष स्थान निश्चित किए गए हैं। कुछ दया के लिए, कुछ करुणा के लिए, कुछ उपचार के लिए, कुछ इसके लिए, कुछ उसके लिए। इसी प्रकार हिंदू मंदिरों में एक ही परमात्मा, एक ही ईश्वर को अलग-अलग रूपों में पूजा जाता है, कुछ निश्चित परिणामों की प्राप्ति के लिए। एक ही गेहूं के आटे से आप कभी रोटी बनाते हैं, कभी पूरियां, तो कभी कुछ और। लेकिन सबको बनाने के लिए अलग-अलग विधियां प्रयोग करते हैं।

आप एक ही आटा लेते हैं, पर उसका अलग-अलग व्यंजन बनाने के लिए अलग-अलग विधियों से प्रयोग करते हैं और उन सब का स्वाद और रंग रूप, सब अलग होता है।
तो, अलग-अलग देवता और अलग-अलग रीति-रिवाज और अनुष्ठानों का लोग अलग-अलग प्रकार से प्रयोग करते हैं, कोई निश्चित परिणाम पाने के लिए। ये सारे कार्य जल्दी परिणाम देते हैं, क्योंकि आपका ध्यान किसी निश्चित कार्य के लिए निश्चित परिणाम पर होता है। यह केवल स्वप्न मात्र नहीं है। स्वप्न के साथ कर्म भी करना पड़ता है, निश्चित परिणाम की प्राप्ति के लिए। आरम्भ में श्रीकृष्ण ने स्वप्न अवस्था के विषय में बताया था- ‘तुम अवश्य सपने देखो, जैसा बोओगे वैसा काटोगे। परंतु केवल बोना ही पर्याप्त नहीं है, तुमको बार-बार उसमें पानी भी डालना पड़ेगा, पालन-पोषण करना पड़ेगा और मेहनत करनी पड़ेगी।’

दुनिया में स्वप्न के साथ कर्म जल्दी फल प्रदान करते हैं। दिव्यता से पहचान भी इस ‘वाह’ की अनुमति से जुड़ी है, जब आप किसी दिव्य दृश्य को देखकर विस्मय से ‘वाह’ कह उठते हैं। यह वाह मन में तभी उत्पन्न होता है, जब आप एक निश्चित प्रक्रिया से अलग कुछ अनुभव करते हैं और जब कोई दूसरी प्रक्रिया आपके मन में दृढ़ नहीं होती। दोनों प्रक्रियाओं के बीच की प्रक्रिया ‘वाह’ की अनुभूति है और यही चमत्कार कहलाती है। यदि चमत्कार दैनिक प्रक्रिया बन जाएं, तो वे चमत्कार नहीं कहलाएंगे।

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