एकदा

गुरु शान्तिदास ने अभेदा को दीक्षा दी, अभेदा ने समझ लिया, वह अब सच्चे मायने में धार्मिक व आध्यात्मिक बन गया है। जो सहजता अब तक थी, दीक्षा के बाद धीरे-धीरे गायब होने लगी। फिर क्या था, विनम्रता ने अपना स्थान छोड़ दिया और अहंकार ने अपना आसन जमा दिया। वह अब अंदर ही अंदर गुरु बनने की चाहत रखने लगा।

गुरु ने अभेदा में हो रहे गलत दिशा के बदलाव को पढ़ लिया। एक दिन गुरु बैठे थे और अभेदा बाहर घूम रहा था। घूमते-घूमते उसकी निगाह एक महिला पर पड़ी जो अत्यन्त सुन्दर थी। वह उसे एकटक निहारने लगा। उसे निहारने में वह इतना मुग्ध हो गया कि उसे आसपास क्या हो रहा है, कुछ पता न रहा। शान्तिदास अभेदा के पास खड़े हो गए और धीरे से बोले, ‘वत्स अभेदा! क्या देख रहे हो?’ ‘कुछ नहीं गुरुदेव… कुछ भी तो नहीं।’ गुरु बोले, ‘क्या यह सही है कि कुछ भी नहीं देख रहे थे?’

अभेदा घबराकर बोला, ‘गुरुदेव! मैं सोच रहा था कि ईश्वर ने सृष्टि में कितनी सुन्दरता भरी है। बस, उसी सुन्दरता पर विचार कर रहा था।’ ‘क्या तुम सुन्दर नहीं हो?’ गुरु ने पूछा। ‘यह मैं कैसे कह सकता हूं गुरुदेव कि मैं सुन्दर हूं।’ ‘फिर तुम सुन्दर नहीं हो तो सुन्दरता की परख कैसे कर ली? ईश्वरीय सुन्दरता को जानना है तो पहले स्वयं में सुन्दर बनना पड़ता है, गुरु ने अभेदा का मर्म भेदन कर दिया था।

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