बहुत छोड़ थोड़े पर रोए

एक बार राजा ब्रह्मदत्त बोधिसत्व के साथ नगर भ्रमण पर निकले। भ्रमण करते-करते जब वे थक गये तो विश्राम के लिए एक उद्यान में रुक गये। राजा के रथ के घोड़े खोल दिए गये और उनके आगे मटर से भरे पात्र रख दिए गये।

तभी वहां एक बंदर आया और उसने मटर पर झपट्टा मारा। बंदर ने मटर के दाने अपने मुंह व हाथ में भर लिए और कूदकर पेड़ पर चढ़ गया। खाते समय उसके हाथ से मटर का एक दाना पेड़ से नीचे जमीन पर गिर गया।

बंदर के हाथ व मुंह में जितने मटर के दाने थे, वह उन्हें छोड़कर पेड़ से नीचे उतरा और उस एक दाने को ढूंढ़ने लग गया। लेकिन उसे मटर कहीं दिखायी नहीं दिया तो वह हारे जुआरी की तरह चिंता करते हुए रोनी सूरत बनाकर पेड़ पर चढ़ गया।

राजा दूर से बंदर की ये सारी हरकतेंें देख रहा था। राजा ने बोधिसत्व से पूछा, ‘बंदर ने यह क्या किया और रोनी सूरत क्यों बना ली? जबकि उसके ‌पास तो और भी मटर हैं।’ बोधिसत्व बोले, ‘महाराज! दुर्बुद्धि मूर्खजन ऐसा ही करते हैं।

ये लोग बहुत की ओर ध्यान न देकर थोड़े के पीछे ही भागते हैं।

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