भटकाते कुतर्क

सामान्यत: लोग एकांत से भागते हैं, डरते हैं और भीड़ की तलाश करते हैं, भीड़ के बीच वे सुकून महसूस करते हैं। वह भीड़ चाहे अपनों की हो या फिर टीवी में आने वाले अनेक प्रकार के चैनलों की या फिर बाजार में घूमने वालों की। लोग इस भीड़ के बीच स्वयं को बड़ा ही सुरक्षित अनुभव करते हैं; जबकि अकेले होने पर वे असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। इसलिए लोग अकेलेपन से, एकांत से भागते हैं।

परन्तु नालंबी के साथ ऐसा नहीं था। वह भीड़ में हो अथवा एकांत में हो, दोनो में सहजता से रहती थी। एकांत होने की स्थिति में वह अपने समय का सदुपयोग लेखन, स्वाध्याय आदि में करने लगती थी।
नालंबी को कोई पुस्तक पसंद आ जाती थी, या फिर उसे कोई कविता, निबंध या लेख मिल जाते थे तो फिर उसे समय का भान नहीं रहता था। उसे यह पता नहीं रहता था कि रात गुजरने वाली है या सुबह से शाम हो गई है।

वह अपने कार्य में इतना व्यस्त रहती थी कि उसे अन्य चिंताएं व्यथित नहीं कर पाती थीं। नालंबी से उसके पिता कहते थे-पुत्री। सदा शुभकर्म करते रहना ओर स्वाध्याय के विचारों में रमण करते रहना। इस बात की परवाह नहीं करना कि कौन तुम्हें क्या कह रहा है, यह फिक्र मत करना  कि कौन तुम्हारे बारे में अच्छा सोचता है या कौन बुरा सोचता है।

प्रशांसा और निंदा, इन दोनों के प्रति तटस्थ रहना ही श्रेयस्कर है। ध्यान रखना कि लोगों के द्वारा की जाने वाली प्रशंसा-निंदा का बहुत औचित्य नहीं होता है। नालंबी को अपने पिता की इस सीख ने बड़ा संबल प्रदान किया था

। वह अपनी पढ़ाई करती थी, शेष समय स्वाध्याय करती थी, चिंतन-मनन करती थी। सौभाग्य से उसे ऐसे माता-पिता मिले थे, जो उसके लिए मित्र, गुरु, मार्गदर्शक सब कुछ थे। नालंबी यदि कभी अपनी मां से किसी विषय पर तर्क करती तो वे कहती थीं-पुत्री तुम अपने पिता से तर्क करना, वे ही तुम्हें समुचित उत्तर दे सकते हैं। तर्क तो कभी-भी कुतर्क बन सकता है।

नालंबी बोली-मां यहीं तो मुझे जानना है कि तर्क, कब कुतर्क बन जाता है और तर्क, कब सत्य की अनुभूति कराता है।
नालंबी के पिता बोले- नालंबी। तर्क का सदुपयोग होता है तो उसका दुरुपयोग भी हो सकता है। सच तो यह है कि तर्क का दुरुपयोग, कुतर्क के रूप में अधिक होता है।

जहां तक बात तर्क और ज्ञान के बीच संबंध की है तो यह समझ लेना चाहिए कि जब तर्क, सत्य की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता है तो ज्ञान का आविर्भाव होता है। तर्क का उपयोग है कि इसे सदा सत्य की अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाए और जब ऐसा होता हे तो फिर सच्चा ज्ञान जन्म लेता है। उसके पिता आगे बोले- पुत्री।

तर्क का दुरुपयोग तब होता है, जब उसे असत्य के लिए प्रयुक्त किया जाता है। ऐसी स्थिति में उससे अज्ञान जन्म लेता है। सत्य के साथ जुडक़र तर्क, प्रमाण बनता है। प्रमाण तर्क का सकारात्मक स्वरूप है। परन्तु तर्क असत्य के साथ जुडक़र संशय, संदेह, शक आदि को जन्म देता है।

इसी को कुतर्क कहते हैं, जो हमें सदा संशय ओर संदेह में उाल देता है। और इस कुतर्क से स्वयं की क्षमता एवं सामथ्र्य पर संदेह होने लगता है, हम स्वयं परेशान होने लगते हैं। सत्य घटनाक्रम की वास्तविकता होता है और झूठ बस, एक कोरी कल्पना।

इसलिए सत्य के साथ तर्क जितना अधिक जुड़ता है, उतनी अधिक प्रमाण में वृद्धि होती है। झूठ के साथ तर्क जितना ज्यादा जोड़ा जाता है, संशय उतने ही अधिक बढ़ जाते हैं। अपने पिता के शब्दों को सुनकर नालंबी  समझ गई थी कि तर्क भटकाते हैं और भाव पहुंचाते हैं।

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