यशोलिप्सा

साधना पथिकए साध्य सिद्धि के लिए.विविध विधाओं में प्रयत्नशील रहते हैंए कई साधक घंटों तक धूप में आतापना लेकर साधना करते हैं। तो कई अग्नि की आतापना लेते हैंए कई वृक्षों पर अधोमुख लटककर साधना करते हैं। कई आकाश दर्शन की साधना करते हैं तो कई नीति दर्शन की साधना करते हैं।
दुरूसाध्यए महाकष्टदायक साधना करने में भी जिस साथक का मन नहीं हिचकिचाताए तनिक भी अकुलाहट नहीं होती वहीं साधक थोड़ी सी याशोलिप्सा के पीछे उद्विग्न हो उठता है। यशोलिप्सा साधना का एक बहुत बड़ा साधक तत्व है।

यह एक अत्यंत विषाक्त कांटा हैए इसके लग जाने से साधक की सारी साधना ही भयंकर विषाक्त बन जाती है। यह एक ऐसा धुन है कि जिसके लग जाने से साधक की सारी साधना थोथी हो जाती है। यह ऐसा कीटाणु है जो साधक के साधना शरीर को विनष्ट कर डालता है।
साधना करने वाले तथाकथित साधक के मन में यह कामनाए अभीप्सा और उत्कट इच्छा होती है कि लोग मेरी प्रशंसा करेंए मैं जगत विख्यात साधक बन जाऊं।
निश्चित समझिए ऐसे व्यक्ति की साधना न रहकर भौतिकी अराधना बन जाती है। साधक का मानस उसके शांत.प्रशांत न बनकर और अशांतए उत्पीडि़त होता हुआ लक्ष्य भ्रष्ट हो जाता है।

बड़े.बड़े तथाकथित योनियों एवं साधकों के मन का भी यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जो तो ज्ञात होगा कि इतनी बड़ी साधना करने वालेए दीर्घ तपश्चर्या करने वालेए आचरण की उत्कृष्टता को लिए हुए उन साधकों की मानस गुफा के किसी न किसी कोने में यश की अभीप्सा अपना स्थान जमाए हुए बैठी है।

थोड़ी सी भी यश कीर्ति में कमी हुईए थोड़ा सा भी उनके विपरीत किसी ने कुछ कह दियाए तब देखिए क्रोध महाज्वाला उन साधकों के मुंह से किस प्रकार फूट पड़ती है। लम्बी.लम्बी तपस्याएं एवं संयमीय उत्कृष्टता का आचरण एक अभिनय मात्र रह जाता है।
जबतक यशोलिप्सा की संभावनाएं अंतरंग से समाहित।

शमित नहीं होगीए तबतक साधक की साधना की महल सुस्थिर रह सकता।
घेराव ही पशुओं के लिए बंधन हैए उसी से ही होता. बहुत क्रंदन है।
स्वार्थ में जूझने वाला.मानवए अपने ही लिए सजा रहा बंधन है।

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