प्रार्थना से खुलेंगे हृदय के द्वार
सूर्य की रोशनी, उसकी किरणों का आनंद लेना हो तो हमें घर के दरवाजे खोलकर बाहर खुले में जाना पड़ता है। ऐसे ही सद्गुरु या किसी संत का दर्शन करने का अर्थ है कि अपने हृदय के द्वार खोल देना और वर्तमान में होना।
दर्शन का अर्थ है सौ प्रतिशत सद्गुरु के साथ होना। आंखों से गुरु के स्वरूप को देखना, कानों से उनके शब्द को पी जाना। श्वास भरें तो इस तरह कि सद्गुरु की उस गुरुता की ख़ुशबू हमारे शरीर में, हमारे भीतरी छोर तक पहुंच जाए।
जैसे बादल बरस रहे हों, तो बस जाकर बादलों के नीचे खड़े ही तो होना है, भीगना तो अपने आप हो जाता है। बादलों को कहना नहीं पड़ता कि कृपया मुझे भी भिगो देना।
स्वामी निश्चलदास जी महाराज ‘विचार सागर’ में कहते हैं कि गुरु बादल होता है। वेद-शास्त्र का ज्ञान जब गुरु के मुख से सुनते हैं, तो समझ आती है, उनका रस आता है। सद्गुरु तो बादल की तरह हैं।
गुरु शरीर नहीं है, गुरु प्राण-शक्ति है, गुरु ज्ञान की शक्ति है। हम जब दुनिया के किसी कोने में बैठकर ज्ञान का चिंतन करते हैं, तो असल में गुरु का ही चिंतन करते हैं।
इसलिए गुरबानी कहती है,‘गुरु मेरे संग सदा है, नाले सिमर-सिमर तिस सदा संभाले।’ मेरा गुरु सदैव मेरे साथ रहता है और मैं उसकी यादों को संभाल कर अपने दिल में रखता हूं।
गुरु हमेशा मेरे संग है, घर में बैठकर साधना करूं या बाहर जाकर करूं, आश्रम में करूं या कहीं भी बैठकर करूं। साधक जब भी आंख बंद करता है तो सबसे पहले अपने गुरुदेव का स्मरण करता है, ‘पधारिये गुरुदेव! मेरे हृदय में विराजमान होइए, अब मैं साधना कर रहा हूं।
आपकी उपस्थिति और आपकी कृपा मुझे नसीब हो।’ कभी अकेले ना बैठें, बैठते ही पहले भावपूर्ण हृदय से गुरु का स्मरण करें।