परोपकारी सोच

भारत की राजनीति में रफ़ी अहमद किदवई एक जानी-पहचानी और सशक्त हस्ती थे । वे दुश्मनों की भी मदद करने से पीछे नहीं हटते थे। संसद के एक सदस्य को प्रदर्शन करने का शौक था, वे ऐसा कोई अवसर नहीं चूकते थे जब रफ़ी अहमद किदवई की आलोचना न करें।

एक बार उसके घर की आर्थिक दशा बेहद शोचनीय हो गई। पत्नी व बच्चे रोटी-कपड़े के अभाव मंे जीर्णशीर्ण से हो गए। किसी ने भी उस सदस्य की मदद न की। जब यह बात रफ़ी अहमद किदवई को पता चली तो उन्होंने हर महीने उस सदस्य के घर एक सौ पचास रुपये भेजने आरंभ कर दिए ताकि वह परिवार दो वक्त की रोटी खा सके।

एक संदेशवाहक यह रुपये उसके घर पहुंचा कर आता था। एक दिन संदेशवाहक उनसे बोला, ‘सर, यह व्यक्ति तो निरंतर आपकी आलोचना करता था। ऐसे में आप उसकी मदद करके उल्टी गंगा बहा रहे हैं।

’ यह सुनकर रफ़ी अहमद किदवई मुस्करा कर बोले, ‘उस व्यक्ति के किए की सजा उसकी पत्नी और बच्चे क्यों भुगतें? एक बात याद रखना कि जरूरतमंद इनसान में निष्ठा या अच्छाई नहीं देखी जाती बल्कि उसकी महती जरूरत को देखा जाता है।’ यह बात सुनकर वह दंग रह गया।

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