टोका-टाकी

भले ही देश में कोरोना संकट की दूसरी लहर उतार पर हो, मगर देश के लोगों में टीका लगाने की बेताबी और उसकी आपूर्ति की विसंगति चिंता बढ़ाने वाली है। निस्संदेह देश में टीका उत्पादन के जैसे समृद्ध संसाधन उपलब्ध थे और जो हमारी क्षमता थी, उसका बेहतर उपयोग हम टीकाकरण अभियान में नहीं कर पाये हैं।

अब तक कुल साढ़े चार करोड़ लोगों को दोनों डोज और साढ़े सत्रह करोड़ लोगों को पहली डोज लगना धीमे टीकाकरण को ही दर्शाता है। तभी शीर्ष अदालत को कहने को बाध्य होना पड़ा कि देश में टीकाकरण की प्रक्रिया मनमानी व तर्कहीन है। टीकाकरण अभियान पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को गंभीरता से लेने की जरूरत है।

सवाल है कि पहली कोरोना लहर के बाद के समय का उपयोग टीका उत्पादन में तेजी लाने में क्यों नहीं हुआ। क्या सत्ताधीशों ने मान लिया था कि कोरोना वायरस सदा के लिये चला गया है? अब जैसी हड़बड़ी केंद्र सरकार दिखा रही है, क्या ऐसे प्रयास पहले नहीं किये जा सकते थे? क्यों पहले अमेरिकी टीका कंपनियों को अनुमति नहीं दी गयी?

अब क्यों हमारे विदेश मंत्री को अमेरिका जाकर टीके के लिये गुहार लगानी पड़ी? क्यों रूसी वैक्सीन स्पूतनिक-वी को भारत में देर से उत्पादन की अनुमति दी गई। क्यों स्वास्थ्य मंत्रालय ने अब हैदराबाद की बॉयोलॉजिकल-ई कंपनी को अग्रिम 1500 करोड़ का भुगतान तीस करोड़ डोज के उत्पादन व भंडारण के लिये किया।

जबकि इस कंपनी की यह स्वदेशी वैक्सीन अब तक दो चरण के ही ट्रायल कर सकी है। अदालत की टिप्पणी इस मायने में भी महत्वपूर्ण है क्योंकि विशेषज्ञ पहले ही टीकाकरण की धीमी गति, टीकों के मूल्य निर्धारण और उसकी कमी पर चिंता जता चुके हैं।

तभी देश में कई जगह टीकाकरण केंद्र बंद होते नजर आये हैं। वह भी तब जब स्वास्थ्य विशेषज्ञ देश में कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर को लेकर आशंका जता रहे हैं। निस्संदेह समय रहते टीकाकरण ही इस संकट से बचाव का कारगर उपाय है।

वहीं दूसरी ओर अदालत ने केंद्र सरकार की उस नीति को लेकर भी चिंता जतायी है, जिसके तहत राज्यों को 18-44 आयु वर्ग की आबादी को टीका लगाने का वित्तीय बोझ उठाना है। जिसमें राज्यों को ज्यादा दाम में सीधे वैक्सीन निर्माताओं से टीका खरीदना है।

हालांकि, केंद्र सरकार दो भारतीय टीका निर्माता कंपनियों सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक द्वारा उत्पादित टीके का पचास प्रतिशत खरीद रही है। लेकिन कोर्ट का सवाल है कि जब केंद्र ने 45 साल से ऊपर के लोगों और फ्रंटलाइन वर्करों को मुफ्त टीका दिया है तो देश की युवा आबादी को टीका देने में भेदभाव क्यों है? एक देश में एक नीति क्यों नहीं है।

संकट यह भी है कि दो अमेरिकी कंपनियों मॉडर्ना और फाइजर ने सीधा राज्यों को टीके की बिक्री करने से मना कर दिया। उनकी दलील थी कि वे केंद्र सरकार को ही टीके की आपूर्ति कर सकती हैं। कोर्ट ने सवाल उठाया था कि राज्य सरकारें क्यों ग्लोबल टेंडर दे रही हैं? क्या यह सरकार की नीति का हिस्सा है? ऐसे में साल के अंत तक देश की वयस्क आबादी के टीकाकरण के लक्ष्य को पाना संदिग्ध लगता है।

विशेषज्ञ कह रहे हैं कि देश में सत्तर प्रतिशत वयस्क आबादी को टीका लगाए बिना कोरोना संकट से मुक्त होकर जीवन सामान्य बनाना असंभव है। देश में टीके की उपलब्धता को देखते हुए यह लक्ष्य हासिल करना आसान नहीं लगता। सरकार की दलील है कि वह वैश्विक वैक्सीन निर्माताओं के साथ बातचीत करके टीकाकरण अभियान को तेज करने के प्रयासों में लगी हुई है।

अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत करके कुछ टीकों की आपूर्ति की बात कही है लेकिन सवा अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में इतने टीकों से क्या होगा। यही वजह है कि कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा था कि बजट में टीकों की खरीद के लिये जो 35000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था, उसका लाभ देश की वयस्क आबादी को क्यों नहीं मिल पा रहा है?

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