शिव भक्तों के लिए बेहद खास है महाशिवरात्रि का पर्व, जानिए इससे जुड़ी कथा

जीवन अस्तित्व में आने के साथ ही कल्याण की अपेक्षा रखता है। कल्याण की यही सनातन आकांक्षा हमें शिवत्व की ओर उन्मुख करती है। शिव शुभता के केंद्र हैं, समस्त कल्याण के अधिष्ठान होने से उनका नाम शिव है- ‘शिवं कल्याणं विद्यतेऽस्य शिवः।’समस्त विद्याओं और धर्म के मूल वेद, भगवान शिव की प्रार्थना करते हुए कहते हैं- ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां। ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम्॥ अर्थात ‘जो संपूर्ण विद्याओं के ईश्वर, समस्त भूतों (पदार्थों) के अधीश्वर, ब्रह्मा के भी अधिपति, ब्राह्मतेज के प्रतिपालक तथा साक्षात परमात्मा हैं, वे सच्चिदानंदमय शिव मेरे लिए नित्य कल्याणस्वरूप बने रहें।’ शिव का यह कल्याणमय स्वरूप उन्हें भारतीय उपासना-परंपरा के केंद्र में प्रतिष्ठित करता है। उत्पत्ति-पालन-प्रलय के तीन आयामों वाला विश्व शिव को त्रिदेवों में एक मानता है। परंतु देवताओं को भी अभय प्रदान करने से वे महादेव हैं।
देवासुर-संघर्ष में समुद्र से उत्पन्न विष से व्याकुल देवता विष पचाने में समर्थ नहीं थे। तब उनकी प्रार्थना से द्रवित होकर भगवान शिव ने संपूर्ण विष का पान कर लिया। गोस्वामी तुलसीदास जी इस प्रसंग का सुंदर उल्लेख करते हैं- ‘जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहि पान किय। तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस।’शिव जगद्गुरु हैं, वे अपनी विलक्षणता से जगत के लिए शिक्षा रचते हैं। मानो वे कहते हैं कि यदि तुम परोपकार भाव से निःस्वार्थ दूसरों के हिस्से का विष पीने को प्रस्तुत हो जाओ तो वह विष मृत्युदायक न होकर मृत्युंजय बना देता है।
शिव नित्य हैं। उनका कोई जन्म-प्रसंग नहीं। कोई माता-पिता नहीं, तथापि उनकी विवाह-लीला उनके जीवन-चरित का सर्वाधिक मनोहर प्रसंग है। शिव महापुराण में शिव-पार्वती के विवाह-वर्णन क्रम में एक रोचक प्रसंग आता है। विवाह मंडप में बैठे हुए दूल्हा रूप शिव को अपनी कन्या देने हेतु पर्वतराज हिमालय उनसे उनका गोत्र पूछते हैं। इस प्रश्न पर अजन्मे शिव संकुचित हो जाते हैं, तब देवर्षि नारद कहते हैं कि हे पर्वतराज, आपने शिव को जानते हुए भी नहीं जाना। ये कुल-गोत्र से सर्वथा रहित और विलक्षण हैं। ये बिना गोत्र के ही सुगोत्री और बिना कुल के ही कुलीन हैं। पार्वती के असाधारण तप से ही यह आपके जामाता हुए हैं।
”अगोत्रकुलनामा हि स्वतन्त्रो भक्तवत्सलः।तदिच्छया हि सगुणस्सुतनुर्बहुनामभृत्॥सुगोत्री गोत्रहीनश्च कुलहीनः कुलीनकः।पार्वतीतपसा सोऽद्य जामाता ते न संशयः॥”
शिव का यह रूप भारत की सांस्कृतिक चेतना में सुरक्षित है। महाशिवरात्रि पर्व व्रत के सात ही साथ भारत के इतिहास-भूगोल को धन्य करतू हुई मांगल्य-गाथा है। महादेव शिव सनातन भारत की कल्याण-भावना के प्रतीक हैं। देवी पार्वती के साथ शिव का योग श्रद्धा और विश्वास का योग है, जिसे महाकवि कालिदास वाणी और अर्थ के रूप में अभिन्न कहते हुए वंदना करते हैं।
सनातन ग्रंथ शिव महापुराण
वेदार्थ का विस्तार करने वाली पुराण-विद्या के अंतर्गत शिव महापुराण भगवान शिव के स्वरूप और माहात्म्य का प्रतिपादन करने वाला ग्रंथ है। षोडश पुराण शृंखला में चतुर्थ स्थान पर स्थापित शिवमहापुराण शिवोपासकों का परम सेव्य ग्रंथ है। महर्षि वेदव्यास ने चौबीस हजार श्लोकों से युक्त शिव महापुराण में विद्येश्वर, रुद्र, शतरुद्र, कोटिरुद्र, उमा, कैलास और वायवीय नामक सात संहिताओं का निरूपण किया है। शैव भागवत के रूप में सम्मान्य शिव महापुराण में शिव की विभूतियों का अनेकविध वर्णन प्राप्त होता है।
विद्येश्वर संहिता में साधन-साध्य आदि का विचार करते हुए श्रवण-मनन और कीर्तन की महिमा कही गई है। भगवान शिव के ज्योतिस्तंभ रूप में प्राकट्य, त्रिदेवों में शिव के माहात्म्य, धर्म के विविध स्वरूपों का प्रतिपादन, बंधन-मुक्ति की व्याख्या, शिव का कारण-कार्य स्वरूप, शिव के नाम, रुद्राक्ष एवं भस्म आदि की महिमा बताई गई है।