जगत को राममय देखना ही भक्ति

भक्ति का विषय अपने आप में रसदार भी है, मीठा भी है, सुंदर भी है और अलौकिक भी। जिसके अनुभव में हो, उसके लिए बड़ा सरस, बड़ा गंभीर, पर उतना ही आनंददायी होता है। भक्ति का स्वरूप क्या है, भक्ति का रहस्य क्या है और भक्ति के लक्षण क्या हैं? भक्ति को अच्छे-से समझने के लिये नौ लक्षण हैं। ये नौ लक्षण स्वयं भगवान श्रीराम ने परम भक्त शबरी को नवधा भक्ति का स्वरूप बताते हुए कहे हैं।

नवधा भक्ति में सर्वप्रथम है- ‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा’ यानी सबसे पहले संतों का संग करें। ऐसे संत, जो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ हैं, जिन्होंने राम के स्वरूप को समझा है। आप किसी भी भक्त की जीवन यात्रा देखेंगे, तो उनकी आध्यात्मिक यात्रा किसी न किसी संत की संगति के बाद ही शुरू हुई है।

जैसे भक्त प्रह्लाद, ध्रुव की यात्रा नारद जी के संग शुरू हुई। दूसरी भक्ति है- दूसरि रति मम कथा प्रसंगा। यानी मेरी कथा को सुनने में, भगवान की लीला के प्रसंग को सुनने में तुम्हारी रुचि हो।

‘गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भक्ति अमान’ यानी गुरु के चरण-कमलों का ध्यान धरना। गुरु के चरण-कमल में स्वयं को समर्पित करना, यह तीसरी भक्ति है। गुरु के पद-पंकज की शरण में होने का मतलब है- गुरु की आज्ञा में रहना।

गुरु की सेवा में उपस्थित रहना, गुरु के वचन को अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए शिरोधार्य करना। आध्यात्मिक उन्नति के लिए सात्त्विक ज्ञान का जो भी आदेश गुरु दे, उसका पालन करना भक्ति है।

‘चौथी भगति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान’ अर्थात् कपट छोड़कर भगवान की स्तुति का गान करना, कीर्तन करना। भगवान की स्मृति को अपने दिल में बनाए रखते हुए प्रभु के प्रेम के गीत गाना, पर उसमें कपट नहीं होना चाहिए और उसमें लोभ भी नहीं होना चाहिए।

‘मंत्रा जाप मम दृढ़ बिस्वासा, पंचम भजन सो वेद प्रकासा’ अर्थात् दृढ़ विश्वास से मंत्र जप करें। यह पंचम भक्ति है। कई लोग मंत्र करते हैं और मन ही मन सोचते हैं कि इससे क्या होगा? यह विश्वास होना चाहिए कि सुमिरन करने वाले की जीवन नैया पार लग जाती है।

इतनों की लगी, हमारी भी लगेगी। जप के लिए जब बैठे, तो इस दृढ़ विश्वास के साथ कि मेरे भजन के प्रताप से मेरा मन शुद्ध हो जाएगा, मेरा अन्त:करण शुद्ध हो जाएगा। इस भजन के प्रताप से मेरी पुण्य राशि बढ़ेगी, जिसकी कृपा से मुझे संतों का संग मिलेगा, मुझे आत्मज्ञान होगा। ईश्वर की अपार कृपा मुझे प्राप्त होगी।

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