ज्ञान की पूर्णता
एक बार कुछ ऋषि पुत्रों में ब्रह्मविद्या जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। वे सभी ऐसे गुरु को तलाश करने लगे जो उन्हें ब्रह्म विद्या प्रदान कर सके।
तय हुआ कि सुप्रसिद्ध तपस्वी ऋषि उद्दालक ने वर्षों के कठोर परिश्रम के उपरान्त आत्मविद्या प्राप्त की है, जिसकी चर्चा वे सदैव अपने शिष्यों के साथ किया करते हैं अत: उन से ही ब्रह्म विद्या प्रदान करने की प्रार्थना की जाए।
जिज्ञासुओं का समूह ऋषि उद्दालक के आश्रम की ओर प्रस्थान कर गया। सूर्योदय के समय ऋषि पूजा-अर्चना से निवृत्त हुए तो उन्होंने ऋषि पुत्रों को अपने आश्रम की और आते देखा।
अपने शिष्यों को जिज्ञासुओं का यथासम्भव स्वागत करने का निर्देश देकर ऋषि ने उनके आने का प्रयोजन जानना चाहा। ऋषि पुत्रों ने ब्रह्म विद्या जानने की इच्छा प्रकट की तो ऋषि उद्दालक सोच में पड़ गए।
वह आत्मविवेचन करने लगे कि ऋषिपुत्र मेरे पास ज्ञान प्राप्ति की इच्छा लेकर आए हैं क्या मैं इतना सक्षम हूं कि इन्हें सम्पूर्ण ब्रह्म विद्या का ज्ञान प्रदान कर सकूं। शायद मैं इनके सभी प्रश्नों का उत्तर न दे सकूं।
अत: ऋषि उद्दालक ने बड़ी शालीनता से ऋषि पुत्रों को कहा कि जिस ज्ञान को मैंने पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं किया वह मैं तुम्हें कैसे दे सकता हूं।
आप सभी मेरे साथ चलें, मैं भी राजा अश्वपति के पास ब्रह्म विद्या का रहस्य प्राप्त करने चलूंगा। वहां मैं एक शिष्य की भांति ही रहूंगा। ऋषि पुत्र उनकी सत्यवादिता एवं विनम्रता के समक्ष नतमस्तक हो गये।