विनम्रता से शिक्षा
एक राजा ने अपने पुत्र की शिक्षा दीक्षा हेतु अपने राज्य के सर्वश्रेष्ठ गुरु को राजमहल में नियुक्त किया। राजकुमार उनके सान्निध्य में परिश्रमपूर्वक शिक्षा ग्रहण करने लगा, लेकिन अनेक माह बीत जाने के उपरान्त भी राजकुमार को शिक्षा की प्राप्ति न हुई तो राजा की बेचैनी बढ़ने लगी।
गुरुजी की योग्यता पर उंगली उठाना भी ग़लत था। अत: राजा ने अपनी महारानी से इस बात की चर्चा की कि राजकुमार अनेक प्रयासों के बावजूद शिक्षा ग्रहण नहीं कर पा रहा है।
महारानी ने कहा कि महाराज, आप इसका कारण गुरुजी से ही क्यों नहीं पूछ लेते। अगले दिन राजा स्वयं गुरुजी की सेवा में उपस्थित हुआ और अपनी परेशानी का कारण बताया।
गुरुजी मुस्कुराते हुए बोले, ‘राजकुमार की बुद्धि में कोई दोष नहीं है, लेकिन अपने अहंकार के कारण राजकुमार शिक्षित नहीं हो पा रहा। जल की तरह ज्ञान भी ढलान की ओर बहता है।
जब तक राजकुमार अभिमानवश स्वयं को गुरु से अधिक बड़ा समझते हुए ऊंचे सिंहासन पर विराजमान होकर शिक्षा ग्रहण करेगा, तब तक कुछ भी नहीं सीख पाएगा।
राजकुमार ने यह सुना तो तुरन्त सिंहासन त्याग कर गुरुजी के चरणों में बैठ गया और विनम्रतापूर्वक शिक्षा ग्रहण करने लगा।