सृजन से भाग्य

एक बार प्रेमचंद दिल्ली गए हुए थे। वहां उनके सम्मान में आयोजित एक सभा हुई। सभा में एक सरदार जी आए और वहां उपस्थित सभी लोगों से बोले, ‘महाशयों! मैं अमृतसर का रहने वाला हूं। कुछ साल पहले मेरे व्यापार में बड़ा घाटा हुआ, तब मैं अमृतसर में सब कुछ छोड़कर कलकत्ता किसी काम की तलाश में आ गया।

मेरी जेब में सिर्फ चार रुपये पड़े थे। मैं जब बाजार में घूम रहा था तो नजर एक बुकस्टाल पर पड़ी। वहां मैंने पत्रिका ‘जमाना’ की एक प्रति देखी, जिसकी कीमत डेढ़ रुपये थी। मैंने उसे उलट-पलट कर देखा तो उसमें मुंशी जी की एक कहानी छपी थी। मेरी रुचि साहित्य में नहीं है, लेकिन मैं प्रेमचंद जी का प्रशंसक हूं। पास बचे चार रुपये में से डेढ़ रुपये में मैंने वह प्रति खरीद ली।

उस कहानी ने मेरी जिंदगी में जो बदलाव किया कि मैंने वापस व्यापार जमा लिया और खूब पैसे कमाए। आज इसी दिल्ली शहर में रहता हूं। मुंशी जी मेरे लिए भाग्य-विधाता के समान हैं, उनकी प्रेरणा से मेरा भाग्य पलट गया।’ मुंशी जी का व्यक्तित्व ही अपने आप में ऐसा था कि उन्हें देखने वाला व्यक्ति उनकी सादगी और सरलता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। यही सादगी और सरलता उनकी रचनाओं में ईमानदारी से झलकती है।

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