भक्ति
एक प्रजा वत्सल राजा थे। एक दिन इष्ट देव ने उन्हें दर्शन दिये तथा कहा, ‘राजन मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। बोलो, तुम्हारी क्या इच्छा है।’ राजा बोले, ‘मेरी इच्छा है कि जैसे आपने मुझे दर्शन दिए, वैसे ही मेरी प्रजा को भी दर्शन दीजिए।
’ भगवान को अपने साधक के आगे झुकना ही पड़ा और उन्होंने प्रजा को एक पहाड़ी के पास बुलाने के लिए कहा। दूसरे दिन राजा प्रजा के साथ पहाड़ी की ओर चल पड़े। रास्ते में तांबे के सिक्कों का एक पहाड़ दिखाई दिया। कुछ लोग उस ओर जाने लगे।
थोड़ी दूर चलने पर चांदी के सिक्कों के पहाड़ पर भी ऐसा ही हुआ। उसके बाद सोने के सिक्कों का पहाड़ दिखने पर लोगों ने सोना लेकर घर आना उचित समझा। अंत में राजा और रानी ही बचे थे। कुछ दूर चलने पर रानी भी हीरे के पहाड़ की ओर चली गई।
राजा यह देख दुखी मन से अकेले ही चल दिए। पहाड़ी पर भगवान खड़े उनका इन्तजार कर रहे थे। राजा को देखते ही भगवान मुस्कुराए और पूछा-कहां है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन?
राजा को निराश देख भगवान ने कहा, ‘राजन जो लोग सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हैं, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती। वे मेरे स्नेह तथा आशीर्वाद से भी वंचित रह जाते हैं।’