मजबूरी और मेहनताना

बात 1946 की है, उन दिनों साहिर लुधियानवी एक पत्रिका निकाला करते थे, जिसका नाम था ‘साकी’। एक बार ऐसा हुआ कि साहिर लुधियानवी के पास बिलकुल भी पैसे नहीं थे और वह समय पर ग़ज़लकार शमा लाहौरी को पैसे नहीं दे पाए।

उस समय शमा लाहौरी को पैसे की बहुत ज़रूरत थी। उस दिन कड़ाके की ठंड थी और कांपते-कांपते हुए शमा लाहौरी अपने पैसों के लिए साहिर लुधियानवी के घर जा पहुंचे। शमा को अपनी चौखट पर खड़ा देख साहिर लुधियानवी के चेहरे से हवाइयां उड़ गई थीं, क्योंकि उनकी जेब में एक फूटी कौड़ी तक नहीं थी।

हालांकि, साहिर ने बहुत ही प्यार से शमा को अपने घर के अंदर बुलाया और उन्हें चाय पिलाई। जब शमा लाहौरी को ठंड से थोड़ी राहत मिली तो उन्होंने साहिर लुधियानवी से कहा कि उन्हें पैसों की सख्त ज़रूरत है और उन्हें अपनी दो ग़ज़लों के पैसे चाहिए, जो पत्रिका में छपी थीं।

साहिर उनकी बात सुन थोड़े परेशान हुए। लेकिन वह खड़े हुए और उन्होंने पास की खूंटी पर टका अपना एक कोट उतारा। यह कोट कुछ समय पहले ही साहिर लुधियानवी के एक फैन द्वारा उन्हें प्राप्त हुआ था।

यह कोट साहिर ने शमा के हाथ में थमाया और कहा, ‘शमा भाई, मेरी बात का बुरा न मानना। इस बार नकद देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। बस यही है जो अभी मैं आपको दे सकता हूं।’ साहिर लुधियानवी की ये बातें सुनकर शमा की आंखें भर आईं। वह चुपचाप वहां से अपने घर को निकल गए।

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