अनूठा समर्पण

एक बार पंडित दीनदयाल उपाध्याय लखीमपुर के संघ कार्यालय में रुके हुए थे। उन्होंने एक दिन अपने सहयोगी बसंत राव वैद्य के सामने अपने बक्से में से कागज़ निकाले और बोले, ‘बसंत राव! इन तमाम कागज़ों को जला डालो, ये बेकार हैं।

’ बसंत राव ने उन कागज़ों पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि उन कागज़ों में पंडित जी के महाविद्यालयीन और विश्वविद्यालय के अध्ययन काल में मिले हुए अनेक प्रशंसा-पत्र, प्रमाण-पत्र तथा संस्थाओं द्वारा प्रदान किए गए अभिनन्दन-पत्र आदि थे।

बसंत राव ने धीरे से कहा, ‘पंडित जी! इन कागज़ों में तो अनेक महत्वपूर्ण प्रमाण-पत्र हैं, जिनसे आगे चलकर आपके असाधारण व्यक्तित्व और विलक्षण गुणों को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकेगा।’ पंडित जी बोले, ‘अरे भाई!

जब मैंने अपना पूरा जीवन भारत माता के चरणों में अर्पित कर दिया है तो भला इन प्रमाण-पत्रों से अब क्या और कौन-सा लाभ मैं उठा सकता हूं? उपाधियां मन में अहंकार पैदा करने वाली व्याधियां ही सिद्ध होती हैं। राष्ट्र और समाज का काम करने वालों को तो अहंकार से दूर ही रहना चाहिए।’

Back to top button

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker