ज्ञान का दीपक
विदुषी सरोजिनी नायडू की एक परिचित को पढ़ने का बहुत शौक था। वे अपना अधिकतर समय पढ़ने में ही लगाती थी। एक दिन उन्होंने सरेजिनी नायडू से कहा, ‘मैं अब साठ वर्ष की हो गई हूं।
पढ़ने की जो लालसा है, वह मन से जाती ही नहीं है। मगर अब लगता है कि इस उम्र में पुस्तकों को मैं अपना और अधिक समय नहीं दे पाऊंगी। सरोजिनी बोलीं, ‘आप अपने परिवार की चमक हैं। आपके ज्ञान के प्रकाश से ही घर का सारा प्रबंधन सफलतापूर्वक चलता रहता है।
बहुत चकाचौंध न सही तो कृपया दीपक बन जाइए।’ उन्होंने सरोजिनी से नाराजगी भरे स्वर में कहा, ‘मैं गंभीर होकर बात कर रही हूं और तुम इसे मजाक में ले रही हो। मैं तो तुमसे सही मार्गदर्शन की अपेक्षा कर रही थी।’ सरोजिनी बोलीं, ‘आप ठीक से नहीं समझीं।
कोई किशोर या युवा जब अध्ययन कर रहा होता है तो उसका भविष्य दमक भरे तारे के समान होता है। उसमें अपार संभावनाएं छिपी होती हैं। प्रौढ़ावस्था में यही अपार दमक दीपक की तरह हो जाती है।
दीपक में सूर्य जितना प्रकाश तो नहीं होता, फिर भी उसका उजाला अंधेरे में रोशनी दिखाकर भटकने से बचाता है। इसी तरह आप भी पढ़ने की अपनी रुचि का पूर्ण त्याग न करके, इसमें मन लगाए रखें।’